Know your world in 60 words - Read News in just 1 minute
हॉट टोपिक
Select the content to hear the Audio

Added on : 2025-01-07 16:50:00

-भवेश दिलशाद

गैस त्रासदी के 40 साल बाद रासायनिक कचरे को भोपाल से पीथमपुर शिफ़्ट किया गया। सुर्ख़ियां बनीं 'बड़ी जीत', 'ऐतिहासिक कामयाबी', 'नये साल की पॉज़िटिव शुरूआत'... अख़बार और समाचार समूह ये कहानियां बताने में जुट गये कि कितनी मशक्कत से सैकड़ों टन कचरा 250 किलोमीटर दूर पहुंचा और कैसे भोपाल को ऐतिहासिक राहत मिल गयी। ऐसा लगा जैसे कचरा किसी दूसरे ग्रह पर फेंकने जैसी कामयाबी मिल गयी हो और जैसे भोपाल का जल, ज़मीन सब कुछ एकदम से शुद्ध हो गया हो! ऐसी ख़बरें आपको मज़ाक़ नहीं लगतीं? ख़तरनाक रासायनिक कचरा जीवन और पर्यावरण को मुंह चिढ़ाता हुआ हमारी ज़मीन पर 40 साल से पड़ा है, तब इतना तो साफ़ है कि विकसित होने की अंधी दौड़ में भागते हमारे विकासशील देश में घातक रासायनिक अपशिष्ट को लेकर दशकों बाद भी कोई नीति, कोई दृष्टि नहीं है। आपके मन में सवाल नहीं उठते?

देखिए, पहले इस कथित रेडियोएक्टिव रासायनिक कचरे को गुजरात के अंकलेश्वर में नष्ट करने की बात थी, विरोध हुआ। फिर जर्मनी की एक कंपनी के साथ डील हो रही थी लेकिन 10 बरस पहले उस कंपनी ने क़रार रद्द कर दिया। दो कारण थे, एक कचरा सौंपने की हमारी नीयत पर सवाल खड़े किये गये और दूसरे जर्मनी के मीडिया ने वहां के लोगों के मन में इस कचरे को लेकर संशय पैदा कर दिया। अब यह कचरा मध्य प्रदेश के ही एक औद्योगिक उपनगर तक भेजकर नष्ट किये जाने की कवायद है। हमारा मीडिया अब भी उत्सवधर्मी है। इस कवायद के सरकारी फ़ैसले और हाई कोर्ट के दख़ल के बरअक्स हम क्या पीथमपुर के जायज़ डर और विरोध को ठीक से समझ पा रहे हैं?

वॉरेन एंडरसन समेत यूनियन कार्बाइड व डाउ केमिकल्स के किसी अमरीकी/विदेशी पदाधिकारी को हमारे देश में कोई सज़ा नहीं दी जा सकी, उल्टे इन लोगों को सुरक्षा के साथ देश से निकलने का मौक़ा दिया गया, क्या यह न्यायसंगत नहीं कि त्रासदी का ज़िम्मेदार देश कम से कम त्रासदी का कचरा निपटाने की ज़िम्मेदारी उठाये! क्यों यह प्रश्न राष्ट्रीय चर्चा और सरकार पर दबाव की तरह हमारी पत्रकारिता नहीं उठा सकी? तर्क आएगा सुप्रीम कोर्ट ने माना तो था कि उचित मुआवज़ा दे दिया गया। इस तर्क से एक और मज़ाक़ आपके सामने आएगा। सुप्रीम कोर्ट के सीनियर वकील रहे कॉलिन गोंज़ाल्वेज़ का भोपाल त्रासदी पर लेख पढ़िए, न्यायिक रवैया कठघरे में दिखेगा।

मानवनिर्मित भोपाल गैस त्रासदी... हज़ारों जानें गयीं, लाखों जीवन हादसा बनकर रह गये और इसके गुनहगारों पर हत्या का केस तक नहीं चल सका। मुआवज़ा शब्द इस संदर्भ में मज़ाक़ का पर्याय बनकर रह गया। मुआवज़ा क्या होता है, नमूना देखना है तो वायक्स दवा के मामले को जानिए। एक दवाई के दुष्परिणाम सामने आने के बाद दवा कंपनी ने प्रति पीड़ित 1 लाख डॉलर से अधिक का भुगतान किया था। ये पीड़ित हज़ारों की संख्या में थे, जिन्हें दिल के दौरे पड़े थे या पड़ने का ख़तरा था।

ये है अमरीकी या यूरोपीय जान का मूल्य। और हिंदोस्तानी जान की क़ीमत? आज भी दो कौड़ी तक की नहीं है। अंग्रेज़ों ने अपने राज में भारतीयों की जान की कोई क़ीमत नहीं समझी। जब जिस जंग में चाहा, झोंक दिया। आज़ादी के बाद से आपदाओं, भुखमरी और सांप्रदायिक हिंसा जैसी त्रासदियों में भारतीयों की जानें जा रही हैं। अब भी, एक हिंदोस्तानी जान की क्या क़ीमत है? प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से तरह तरह के युद्धों में बेवजह हमारा जीवन दांव पर लगाया जा रहा है।

ख़बरों में है कि रासायनिक कचरे को शिफ़्ट करने के काम में हज़ार लोग लगे। कचरा पैक करने, कंटेनरों में लोड करने में तक़रीबन 150 मज़दूर। बताते हैं इन्हें पीपीई किट दी गयी थी और कुछ कुछ देर में डॉक्टर हेल्थ चेकअप कर रहे थे, हालांकि ऐसी कोई तस्वीर प्रमाण के तौर पर समाचारों के साथ प्रकाशित नहीं हुई। इसे सच मान लें तब भी, ऐसी व्यवस्था की ही क्यों गयी? रिमोट कंट्रोल संचालित कुछ दर्जन रोबोट ये काम क्यों नहीं कर सकते थे? जब इस कचरा शिफ़्टिंग पर करोड़ों ख़र्च किया ही जा रहा है और उधर, उद्योगों में श्रमिकों का रोज़गार रोबोट छीन ही रहे हैं तो जहां ज़रूरी है इंसानी जीवन बचाना, वहां तकनीक का उपयोग क्यों नहीं?

आप जानते हैं 2024 तक तक़रीबन 50 हज़ार रोबोट देश के औद्योगिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं! हालांकि चीन में यह संख्या कई गुना है फिर भी, 'विश्व रोबोटिक्स 2024 रिपोर्ट' बता रही है रोबोट के इस्तेमाल में जो देश तेज़ी से क़दम बढ़ा रहे हैं, भारत उनमें 7वें नंबर पर है। भारत में औद्योगिक रोबोटों का बाज़ार इस साल 4500 करोड़ रुपये तक का हो सकता है। ऐसे आंकड़ों से यह तो साफ़ है कि भारत को जल्द ही रोबोटों को लेकर एक स्पष्ट नीति, एक दूरदर्शी समझ और क़ानूनों आदि की आवश्यकता पड़ने वाली है। दूसरी ओर, कड़वा सच यह है कि भारत उन देशों में है जहां अब तक साइबर मामलों तक के लिए कोई स्पष्ट और दूरदर्शी विज़न तैयार नहीं किया जा सका है। इन हालात में, विकासशील देशों के लिए तकनीक के बेलगाम उपयोग एवं प्रयोग के क्या परिणाम हो सकते हैं, एक अंदाज़ा तो लगता ही है।

भारत ऐसा देश रहा है, जिसने विज्ञान को विषय के तौर पर कम बल्कि जीवनशैली के तौर पर ज़्यादा अपनाया; जिसने संसाधनों के प्रबंधन को अकादमिक ढंग के बजाय लोक दर्शन के रूप में अधिक अंगीकार किया; जिसने नैतिकताओं और मूल्यों को क़ानूनी दस्तावेज़ों के बजाय मन और लोकाचार में अधिक टंकित किया... यह हमारे देश की शक्ति रही है। हमें इस विचार की ताक़त को लेकर एक विश्वस्त समझ बनाने की दिशा में कोशिशें करना ही चाहिए। दूसरे के हथियारों के सहारे, दूसरों की छेड़ी हुई जंग में एक पक्ष बन जाना कोई समझदारी है?

एक जंग प्रत्यक्ष तौर पर हथियारों से लड़ी जा रही है और एक जंग के लिए जैविक हथियारों (बायो वेपन) का इस्तेमाल हो रहा है। एक और जंग छिड़ रही है, जिसे तकनीक के ज़रिये लड़ा जा रहा है। देखिए, लेबनान में पेजर और वॉकी टॉकी किस तरह जानलेवा हथियार बन गये। अमरीकी चुनावों के दौरान एलन मस्क ने कहा ईवीएम मशीनें हैं और इन्हें हैक किया जा सकता है। कल्पना कीजिए कि चारों तरफ़ से ऐसे डिवाइसों और मशीनों से घिरे हुए हम कितने सुरक्षित हैं? हमारे हाथ का लैपटॉप, स्मार्ट फ़ोन किस घड़ी बम की तरह फट सकता है? क्या हम हर घड़ी बमों के बीच नहीं विचर रहे? तिस पर रोबोटों की संख्या का अनियंत्रित बढ़ना जल्द एक नियति हो जाएगा।

अंधाधुंध विकास के समय में दो विकराल मोर्चे हैं, जिन पर भारत को विचार करना है। एक है घातक औद्योगिक कचरे का निस्तारण और दूसरा, कृत्रिम बौद्धिकताजनित मशीनों से निपटना। प्रश्न यह नहीं है कि इन रोबोटों के संचालन हेतु कौशल विकास कैसे हो या इनका नियंत्रण एवं प्रबंधन किस तरह, प्रश्न यह है कि इंसानी जान, लोकजीवन और तकनीक विकास के बीच एक संतुलन, सामंजस्य और उपयोगितानुसार उत्पादन का सूत्र क्या हो? तकनीक को लेकर हमें एक विज़न, एक दर्शन की ओर रुख़ तो करना होगा अन्यथा करोड़ों जानों का जोखम हर घड़ी सिर पर मंडराता दिखेगा।

आज की बात

हेडलाइंस

अच्छी खबर

शर्मनाक

भारत

दुनिया