राजेश बादल
इन दिनों कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां बढ़ती जा रही हैं । सत्तारूढ़ पार्टियां दोबारा सरकार बनाने के लिए जो टोटके कर रही हैं, उनमें से एक मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्रियों को बदलना भी है । इन पार्टियों को लगता है कि सरकार का मौजूदा नेतृत्व उन्हें फिर एक बार गद्दी नहीं दिला पाएगा । इसलिए वे नए चेहरे को सामने लाती हैं । इस चेहरे के खिलाफ़ नकारात्मक वोट नहीं होते । राजनीतिक दल यह सोचते हैं कि वे जिस मुख्यमंत्री को हटा रहे हैं, उसने वास्तव में चुनाव में जीत दिलाने लायक काम नही किया है । मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी सरकार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तथा राजस्थान में कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बारे में दोनों ही राजनीतिक दलों का आलाकमान इसी दुविधा का शिकार है । कुछ सूचनाएँ छत्तीसगढ़ से भी आई थीं ,मगर वहां टी एस सिंहदेव को उप मुख्यमंत्री बनाकर फौरी तौर पर समाधान निकालने का प्रयास इसी कड़ी का हिस्सा है ।इस कवायद में सियासी पार्टी भले ही जीत जाए , पराजय तो मतदाता की ही होती है ।चुनाव दर चुनाव यह सिलसिला बढ़ता जा रहा है।
लेकिन इस मसले पर गहराई से विचार करें तो पाते हैं कि अपनी पार्टी की सरकार बनाने के लिए यह दल जो क़दम उठाते हैं ,वे वास्तव में काफी हद तक अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक हैं । किसी भी राज्य में निर्वाचन के बाद वही विधायक मुख्यमंत्री बनता है ,जिसे विधायक दल का बहुमत से समर्थन हासिल हो ।पर,हमने देखा है कि हालिया दशकों में इस व्यवस्था का पालन नहीं हो रहा है । बहुमत से विधायकों के दिलों पर राज कोई एक विधायक करता है और आलाकमान अचानक एक पर्ची में नया नाम भेज देता है और वह मुख्यमंत्री पद की शपथ ले लेता है । यहीं से नेता पद की गाड़ी पटरी से उतर जाती है । इसके बाद यदि हम मान लें कि उस मुख्यमंत्री को विधायक दल का समर्थन हासिल है तो उसे हटाने की प्रक्रिया भी यही है । जब वह मुख्यमंत्री बहुमत से अल्पमत में आ जाता है तो फिर उसे पद पर बने रहने का हक़ नहीं रहता । उसे त्यागपत्र देना ही पड़ता है ।इसके बाद भी यदि इस्तीफ़े के अन्य लोकतांत्रिक और वैधानिक कारण हम खोजना चाहें तो फिर उसे किसी अपराधिक अथवा भ्रष्टाचार के मामले में जेल ही कुरसी से उतार सकती है और राज्यपाल उसे बर्खास्त कर सकता है । यहां भी सियासी परंपरा कुछ दशकों से संविधान की भावना का आदर करते नहीं दिखाई देती ।अचानक आलाकमान का दूत प्रदेश की राजधानी में प्रकट होता है और एक फ़रमान सुनाकर मुख्यमंत्री बदल देता है । पहाड़ी प्रदेश उत्तराखंड का उदाहरण हमारे सामने है ।
ध्यान देने की बात यह है कि जब कोई दल जीतकर आता है तो वह अपने वचनपत्र या घोषणा पत्र के अनुसार सरकार चलाने का वादा कर चुका होता है ।इसके बाद भी चुनाव के ठीक पहले उसे हटाए जाने से मतदाताओं के बीच दो संदेश जाते हैं । एक तो यह कि उसने पार्टी के कार्यक्रमों को ठीक से लागू नहीं किया और दूसरा यह कि घोषणा पत्र ही लचर और अप्रासंगिक था ।इस कारण वह मतदाताओं को वह लुभा नही सका । ऐसी सूरत में आधी दोषी तो पार्टी होती है । ठीकरा हटाए गए मुख्यमंत्री पर फूटता है । यह अनुचित है । यह एक तरह से उस राजनेता का सार्वजनिक अपमान ही कहा जा सकता है ,जो अपनी पार्टी कार्यक्रमों और नीतियों को ढंग से लागू नहीं करा सका और एक नाकारा सरकार का नेतृत्व करता रहा । पर इस बात के लिए राजनीतिक दल का आलाकमान भी कम ज़िम्मेदार नहीं है ,जो चार साल तक कथित नाकाम मुख्यमंत्री को बर्दाश्त करता रहता है । वे विधायक भी दोषी माने जाने चाहिए ,जो उसे विधायक दल का नेता चुनते हैं । अकुशल और अक्षम नेता को चार साढ़े चार साल तक स्वीकार करने का अर्थ यह भी निकलता है कि जिन विधायकों ने उसे नेता चुना है ,वे उस चुने गए मुख्यमंत्री से भी कमज़ोर हैं।यदि आलाकमान की पर्ची से वह प्रदेश का मुखिया चुना गया है तो फिर आला कमान की योग्यता पर भी सवाल खड़े होते हैं ।उसने मुख्यमंत्री के रूप में ऐसा राजनेता तय किया,जिसे चार साढ़े चार साल में ही हटाना पड़ गया ।
भारतीय लोकतंत्र की सेहत को दुर्बल बनाने वाला एक कारण और भी है । चुनाव से पहले जब सत्ताधारी दल को लगता है कि उसकी सरकार फिर बननी कठिन दे दिखाई रही है तो वह अपनी आंतरिक कमज़ोरियों को दूर करने के बजाय प्रतिपक्ष में सेंध लगाकर उसे विभाजित करने का प्रयास करता है ।वह सुशासन के आधार पर नहीं,बल्कि तोड़फोड़ की सियासत के सहारे अपनी सरकार बनाना चाहता है । कमोबेश प्रत्येक सियासी पार्टी में महत्वाकांक्षी नेता और कार्यकर्ता होते हैं । उन्हें अवसर पाते ही दल बदलने में महारथ हासिल होती है ।ऐसे राजनेता सिद्धांतों और विचारधारा को ताक में रखकर हुकूमत का हिस्सा बन जाते हैं ।क्षेत्रीय दलों में यह प्रवृति अधिक नज़र आती है। उनमें एकल नेतृत्व रहता है इसलिए दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेताओं के लिए शिखर पर जाने की स्थितियाँ न के बराबर होती हैं। सिद्धांतों और सरोकारों से समझौता करने की एक वजह यह भी मानी जा सकती है। जम्हूरियत के लिए यह एक झटके से कम नहीं है क्योंकि सारे राजनीतिक दल अपनी वैचारिक धुरी से भटक जाते हैं । ज़िम्मेदार स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत नहीं है ।