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हॉट टोपिक
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Added on : 2025-04-23 17:47:25

राजेश बादल 

चार पाँच दिन का समय है।अट्ठाईस अप्रैल को कनाडा के मतदाता अपनी नई सरकार के लिए मतदान करेंगे। अभी तक के सर्वेक्षण तो सत्तारूढ़ लिबरल पार्टी की कंजरवेटिव पार्टी पर बढ़त दिखा रहे हैं। एक हफ़्ते पहले हुए चुनावी सर्वेक्षण में लिबरल पार्टी को 44 प्रतिशत और कंजरवेटिव पार्टी को 38 फ़ीसदी मतदाताओं का समर्थन मिल रहा था। यह स्थिति लिबरल पार्टी के पक्ष में मानी जा सकती है।दरअसल,लिबरल पार्टी को समय पर जस्टिन ट्रुडो से त्यागपत्र लेने का लाभ मिल रहा है। आमतौर पर कनाडा को अमेरिका का पिछलग्गू माना जाता रहा है। लेकिन,अमेरिका में नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दूसरी बार सत्ता संभालने के बाद से समीकरण बदले हैं।ट्रंप ने कनाडा को अमेरिका में शामिल होने की बड़बोली सलाह दे डाली। वे कनाडा के प्रधानमंत्री को वहाँ का गवर्नर भी बनाना चाहते हैं। ज़ाहिर है, इससे कनाडाई नागरिकों को भड़कना ही था। ट्रुडो के स्थान पर आए नए प्रधानमंत्री मार्क कार्नी पेशे से बैंकर हैं और सियासी दाँवपेंच में बहुत माहिर नहीं हैं। इसलिए पहले भी वे प्रधानमंत्री पद की ज़िम्मेदारी संभालने से इनकार करते रहे हैं। मगर डोनाल्ड ट्रंप के इस अपमानजनक प्रस्ताव पर वे भड़क उठे। उन्होंने अमेरिका तथा ट्रंप को लेकर जो कड़क रवैया अख़्तियार किया,उसने उन्हें अपनी पार्टी की मतदाताओं के बीच धुँधलाती छबि को बेहतर बनाने का अवसर दिया। अन्यथा जस्टिन ट्रुडो ने तो पार्टी की नैया डुबो ही दी थी। यह बिल्ली के भाग्य से छींका टूटना ही था क्योंकि उनकी विपक्षी कंजरवेटिव पार्टी के नेता पोइलिवरे ने अमेरिका और डोनाल्ड ट्रंप के प्रति नरमी दिखाई थी ।यह समझ से परे है कि पोइलिवरे ने ऐसा व्यवहार क्यों किया ,पर यह पक्का है कि कनाडा की नई सरकार को भारत के प्रति अपना व्यवहार बदलना होगा और वहाँ सिख आतंकवादियों को सरकारी समर्थन से बचना पड़ेगा। 

कनाडा के मौजूदा प्रधानमंत्री मार्क कार्नी ने भारत के बारे में अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री ट्रुडो की एक और भयानक भूल को सुधारने का प्रयास किया। उन्होंने भारत के साथ अच्छे संबंधों की वकालत की और कुछ ऐसे क़दम उठाए ,जो भारतीय हितों के अनुकूल थे। मसलन विदेशी छात्रों के लिए वीज़ा प्रक्रिया आसान बनाने का काम भारत के लिए ठीक ठाक है। मुल्क़ की आंतरिक शिक्षा प्रणाली को सुधारने की दिशा में उनके प्रयास संतोषजनक कहे जा सकते हैं। यह क़दम जस्टिन ट्रुडो भी उठा सकते थे ,पर वे ऐसा नहीं कर पाए। बड़े और संवेदनशील मसलों पर निर्णय लेने से बचते रहे। इसका नुकसान उन्हें और उनकी पार्टी को उठाना पड़ा था।दूसरे कार्यकाल में तो लिबरल पार्टी को अपने दम पर बहुमत नहीं मिला। यह जस्टिन ट्रुडो की अलोकप्रियता ही थी ,जिसके कारण पार्टी ने इस बार उन्हें चुनाव प्रचार अभियान से दूर रखा। समूचे प्रचार अभियान में वे अलग थलग पड़े रहे। माना जा रहा है कि कनाडा की सियासत में अब उनका बहुत चमकदार भविष्य नहीं दिखाई देता। जिन बीजों की फसल उन्होंने बोई,अब उन्ही को काट रहे हैं। 

कनाडा की चुनावी राजनीति में भारतीय मतदाता महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं।लगभग तीन करोड़ मतदाता वहाँ हैं। इनमें से औसतन सत्तर फ़ीसदी मतदाता अपने अधिकार का उपयोग करते हैं। इसका अर्थ यह कि क़रीब दो करोड़ मतदाता अपने वोट का इस्तेमाल करते हैं। इनका कोई पाँच प्रतिशत अर्थात लगभग दस लाख भारतीय मतदाता हैं। यह दस लाख मतदाता पचास सीटों पर निर्णायक असर डालते हैं। पुराना रिकॉर्ड कहता है कि लिबरल पार्टी को भारतीय मूल के मतदाताओं का समर्थन अधिक मिलता है। भारतीय मतदाताओं में बहुतायत सिख धर्म के मानने वाले हैं। उनमें से हालिया दौर में खालिस्तानी आंदोलन के प्रति सहानुभूति रखते हैं। इसे ध्यान में रखते हुए सरदार जगमीत सिंह की अगुआई में न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी भी चुनावी राजनीति में उतर पड़ी। जस्टिन ट्रुडो के पिता पिय्ररे ट्रुडो भी खालिस्तानी आन्दोलन को लेकर नरम रहे हैं। इसलिए जब 2021 में जस्टिन ट्रुडो ने समय पूर्व चुनाव कराने का ऐलान किया तो परिणाम उनके ख़िलाफ़ गए। उनकी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। इसके बाद जगमीत सिंह की अगुआई वाली पार्टी ने ट्रुडो को अपना समर्थन दे दिया। जगमीत सिंह की पार्टी को 25 सीटें मिली थीं। यह किसी भी तीसरे दल के लिए सर्वाधिक संख्या थी। इस तरह ट्रुडो न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थन लेने पर मजबूर हुए और खालिस्तान समर्थक तत्व सर उठाते रहे। ट्रुडो उनके हाथों में खिलौना बने रहे। पर , इस बार स्थिति उलट है। न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थकों ने ग़ैर सिख मतदाताओं को सताना शुरू कर दिया। इससे वे भारतीय मतदाता जगमीत सिंह की पार्टी से छिटक गए ,जिन्होंने 2021 में एकजुट होकर न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थन किया था ।अब भारतीय मतदाता दो धाराओं में विभाजित हैं। इसलिए इस बार जगमीत सिंह के दल को अधिक कामयाबी के संकेत नहीं हैं। शायद ही यह पार्टी इस बार दहाई का आँकड़ा पार सके। वैसे तो भारतीय मूल के 65 प्रत्याशी भी चुनाव के मैदान में हैं। पाँच सीटें तो ऐसी हैं ,जिनमें दोनों बड़ी पार्टियों की ओर से भारतीय मूल के प्रत्याशी ही आमने सामने हैं। इस तरह उन सारी सीटों पर दिलचस्प स्थिति बन गई है ,जिनमें भारतीय मूल के मतदाता अधिक हैं। जगमीत सिंह की ताक़त अब उनकी कमज़ोरी बन गई है क्योंकि भारतीय वोटर बँट गए हैं। जो खालिस्तान समर्थक हैं ,वे जगमीत की पार्टी के साथ हैं। शेष दोनों बड़ी पार्टियों में विभाजित हैं।

भारतीय मतदाताओं की इस गाथा को बयान करने का मतलब यह है कि कनाडा की नई सरकार को भारत के साथ बेहतरीन रिश्ते बनाकर रखना विवशता भी है। अब वह लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर आतंकवाद को लंबे समय तक पाल पोस नहीं सकेगी।दशकों तक उसका अभिभावक रहा अमेरिका अब अलग राह पर चल पड़ा है। ऐसे में अपनी आर्थिक सेहत अच्छी रखने के लिए कनाडा को भारत के बाज़ार की ज़रूरत होगी। डोनाल्ड ट्रंप के मिजाज़ को देखते हुए संसार का कोई भी देश अब अमेरिका के संग दीर्घकालीन कारोबार बने रहने की गारंटी नहीं ले सकता।

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