चिंताजनक पक्ष यह है कि डिजिटल अरेस्ट का शिकार ज्यादातर वो लोग हो रहे हैं, जो बुजुर्ग हैं और आमतौर पर कानून और व्यवस्था का सम्मान करने वाले हैं। ये अभी भी मानते हैं कि नियम कायदे, सरकारी दस्तावेज और आधिकारिक संस्थाएं फर्जी नहीं हो सकतीं।
विस्तार
साइबर अपराधों में नवीनतम तरीके डिजिटल अरेस्ट को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 27 अक्टूबर को ‘मन की बात’ में जिक्र किया, इसी से समझा जाना चाहिए कि यह मामला कितना गंभीर हो चुका है। साइबर ठग अब पढ़े लिखे लोगों को भी अपने भावनात्मक और फर्जी आधिकारिक जाल में फंसाकर उनकी पसीने की गाढ़ी कमाई को एक झटके में लूट रहे हैं।
इस पूरी लूट का चिंताजनक पक्ष यह है कि डिजिटल अरेस्ट का शिकार ज्यादातर वो लोग हो रहे हैं, जो बुजुर्ग हैं और आमतौर पर कानून और व्यवस्था का सम्मान करने वाले हैं। ये अभी भी मानते हैं कि नियम कायदे, सरकारी दस्तावेज और आधिकारिक संस्थाएं फर्जी नहीं हो सकतीं।
दुर्भाग्य से इसी सकारात्मक सोच का नाजायज फायदा साइबर अपराधी धड़ल्ले से उठा रहे हैं। इसका एक कारण भारत में साइबर अपराध को रोकने तथा निजी डाटा सुरक्षा कानूनों का बहुत सख्त न होना है।
डिजिटल अरेस्ट धोखाधड़ी के आंकड़े
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस साल जनवरी से अप्रैल तक भारतीयों को "डिजिटल अरेस्ट" के जरिए की गई धोखाधड़ी से 120.30 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। इस साइबर फ्राॅड के आका दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों म्यांमार, लाओस और कंबोडिया में बैठे हैं। लेकिन इन पर कठोर अंकुश के लिए हम कुछ खास नहीं कर पा रहे हैं।
ऑनलाइन अपराधों की निगरानी करने वाला संस्थान भारतीय साइबर अपराध समन्वय केंद्र (I4C) के अनुसार डिजिटल अरेस्ट अब डिजिटल धोखाधड़ी का एक आम तरीका बन गया है। I4C के अनुसार, साइबर घोटाले चार प्रकार के होते हैं - डिजिटल अरेस्ट, ट्रेडिंग घोटाला, निवेश घोटाला (कार्य आधारित) और रोमांस/डेटिंग घोटाला।
इनमें भी सबसे नया और मनोवैज्ञानिक भयादोहन का तरीका डिजिटल अरेस्ट है। साइबर अपराधी आपकी कोई निजी जानकारी हासिल कर या कोई झूठे मामले का जिक्र कर आपको इस बुरी तरह से ब्लैकमेल करते हैं कि आप अपनी सहज विवेक शक्ति भी भुला बैठते हैं। मनुष्य के मन पर कब्जा इस अपराध का सबसे प्रबल पक्ष है।
अपराधी अपनाते हैं ये तरीका
डिजिटल अरेस्ट करने के लिए आपको अचानक ही एक फोन कॉल आएगा। जिसमें कॉलर बताएगा कि आपने अवैध सामान, ड्रग्स, नकली पासपोर्ट या अन्य प्रतिबंधित पार्सल भेजा था या आपको यह मिला है यानी आपने इसे रिसीव किया है। कई बार आपको टारगेट करने के लिए यह फोन कॉल आपके रिश्तेदारों या दोस्तों को भी जा सकती है, जिन्हें बताया जाएगा कि आपके दोस्त या आपके रिश्तेदार ऐसे अपराध में शामिल हैं। आपको जैसे ही दोस्त या रिश्तेदार से यह सूचना मिलेगी, आप घबरा जायेंगे।
एक बार टारगेट सेट करने के बाद अपराधी आपको स्काइप या किसी अन्य वीडियो कॉलिंग सिस्टम से आपसे संपर्क करेंगे। वो खुद को कानूनी अधिकारी, पुलिस या किसी जांच एजेंसी के अधिकारी के रूप में पेश करेंगे। सरकारी वर्दी में भी दिखेंगे। वीडियो कॉल में आप उन्हें किसी फर्जी पुलिस स्टेशन या सरकारी कार्यालय में बैठे दिखेंगे ताकि आपको विश्वास हो जाए। आपसे वो "समझौता" करने या "मामले को बंद करने" के लिए पैसे मांगेंगे, लेकिन पैसे तभी मांगे जाएंगे, जब आप मजबूर हो चुके होंगे।
I4C ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के डेटा और कुछ ओपन-सोर्स जानकारी का विश्लेषण करने के बाद पाया कि ज्यादातर फोन कॉल म्यांमार, लाओस और कंबोडिया से की जा रही हैं। या फिर वहां से वीपीएन के जरिए भारत में ही बैठकर इसे अंजाम दिया जा रहा है। इस धंधे में कई भारतीय भी लगे हैं, जिन्हें विदेशी कंपनियों में रोजगार के नाम पर साइबर गुलाम बना लिया जाता है।
दरअसल भारत में साइबर अपराध को पकड़ने और ऐसे अपराधियों को सजा दिलवाने में भारतीय पुलिस और जांच एजेंसियां बहुत सक्षम नहीं हैं, क्योंकि बीते दो दशको में देश में डिजिटलीकरण तो बहुत तेजी से किया गया, लेकिन साइबर सुरक्षा को लेकर खास चिंता नहीं की गई। यानी इसके राजनीतिक, सामाजिक लाभों पर तो हमारी नजर थी, लेकिन सारी चीजें ऑनलाइन होने के बाद हमारी निजता की रक्षा के बारे में ज्यादा कुछ नहीं सोचा गया। इसी का नतीजा है कि आज हम डिजिटलीकरण के दुष्परिणामों को भी उसी शिद्दत से भोग रहे हैं।
भारत के विपरीत जिन देशों में डिजिटलीकरण हुआ, वहां डाटा सुरक्षा और साइबर फ्राॅड रोकने के उपाय भी समांतर रूप से किए गए। हमारे यहां न तो इसके लिए पुलिस समुचित रूप से प्रशिक्षित है और न ही जांच एजेंसियां उतनी अपडेट हैं। आलम यह है कि साइबर अपराधी पुलिस और जांच एजेंसियों से दस गुना आगे हैं। आप कह सकते हैं कि इस देश में जब फर्जी पीएमओ अधिकारी, फर्जी बैंक ब्रांच और नकली अदालत धड़ल्ले से चल सकती हो तो डिजिटल अरेस्ट हमारी नियति ही है।
हालांकि देश में लगातार बढ़ते साइबर अपराधों के चलते कुछ साइबर अपराध थाने खोले गए हैं, जो नाकाफी हैं। इस बीच केन्द्र सरकार ने देश में 5 हजार साइबर कमांडो की भर्ती का ऐलान किया है, जिनमें से 1 हजार की ट्रेनिंग शुरू भी हो चुकी है लेकिन यह भी बढ़ते साइबर अपराधों के मुकाबले अपर्याप्त है।
हैरानी की बात यह है कि लगातर बढ़ते साइबर अपराधों के साथ-साथ देश में साइबर अपराधों के अड्डे भी बढ़ते जा रहे हैं और सुरक्षा एजेंसियां उनके खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं कर पा रही हैं। यहां बुलडोजर से किसी आरोपी का घर ढहाया जा सकता है, लेकिन साइबर क्राइम लिप्त पूरे गांव पर कोई कार्रवाई नहीं होती।
आज देश के 9 राज्यों के कई दर्जन गांव ऐसे हैं, जहां से खुले आम साइबर अपराधों को संचांलित किया जा रहा है। अकेले झारखंड में 42 ऐसे गांव हैं, जहां साइबर ठगी लोगों की आय का मुख्य साधन बन चुका है। घर बैठे लूट की यह कमाई बेरोजगार युवाओं और गरीबों को इस कदर आकर्षित कर रही है कि वो दूसरा कामों में मेहनत करने की जगह एक लैपटाॅप और फोन के जरिए लाखों की ठगी घर बैठे कर रहे हैं। सख्त कानूनों और राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में ये धंधा बेखौफ चल रहा है।
इसका कारण शायद यह है कि हत्या, सार्वजनिक लूट, बलात्कार या हिंसक अपराधों के कारण समाज में जो दहशत फैलती है, वह खामोश और व्यक्तिगत रूप से टारगेट कर किए जाने वाले साइबर अपराधों से नहीं फैलती। कई बार साइबर ठगी में अपनी जिंदगी भर की कमाई एक झटके में गंवा देने वाला व्यक्ति शर्म के मारे से दूसरे से कुछ कह भी नहीं पाता। लेकिन पानी सर के ऊपर से गुजरने लगा है। ये नए किस्म का साइबर आतंकवाद है, जो हमारे जीवन का सुख छीनता है.
यह कहने में तो आसान है, लेकिन साइबर अपराधी जिस चालाकी से सामने वाले व्यक्ति को आतंकित कर देते हैं, उससे पीड़ित अपनी सामान्य विवेक बुद्धि भी खो बैठता है। उसका क्या? जरूरत इस बात की है कि ऐसे फर्जी काॅल्स पर नकेल कैसे लगे। अब तो साइबर अपराधियों ने फ्राॅड का एक और नया तरीका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। वे इसके लिए सरकारी सेवा AePS का इस्तेमाल कर रहे हैं।
यह एक ऐसी सेवा है, जिसके जरिए आप आधार कार्ड और बायोमैट्रिक के जरिए बैंक अकाउंट से पैसे निकाल सकते हैं। जिन यूजर्स का बैंक अकाउंट आधार कार्ड से लिंक होता है और AePS इनेबल रहता है, वो बिना किसी चेकबुक, एटीएम कार्ड आदि के भी अपने अकाउंट से पैसे निकाल सकते हैं। हालांकि, इसके लिए रिजर्व बैंक ने एक लिमिट सेट की है।
यहां एक सवाल यह भी है कि इस डिजिटल अरेस्ट के पीछे कौन सा मनोविज्ञान काम करता है?
इस बारे में दिल्ली के जाने माने मनोवैज्ञानिक डाॅ. अरविंद अओट्टा का कहना है-
साइबर अपराधी भावनात्मक रूप से अपने शिकार को ब्लैकमेल करते हैं। साइबर अपराधी मनोवैज्ञानिक तरकीब (ट्रिक्स) हेलो इफेक्ट का उपयोग करते हैं। इसका अर्थ यह है कि आप सीमित जानकारी के आधार पर किसी के प्रति एक सकारात्मक मान्यता रखते हैं। साइबर अपराधी इसी का नाजायज फायदा उठाते हैं। वो आपके आधार कार्ड, वाहन क्रमांक, आप का कार्यस्थल या पारिवारिक जानकारियां हासिल कर आपको बताते हैं तो आपको लगता है कि सामने वाला कोई आधिकारिक व्यक्ति है और सच बोल रहा है। आप डर जाते हैं और कई बार वो जानकारियां भी सामने वाले को दे बैठते हैं, जो नहीं दी जानी चाहिए।
साइबर अपराधी आपके मनोविज्ञान को तेजी से भांपते हैं और जैसे ही उन्हें लगता है कि आप उसकी बातों से डर गए हैं, वो आपका और भी दबंगई से भयादोहन करने लगता है। आप भयवश उसके हर आदेश का पालन करने लगते हैं, बजाय यह सोचने कि उसे आदेशित करने वाला कौन है, वो ऐसा क्यों कर रहा है और उसकी प्रामाणिकता क्या है?
इसे मनोविज्ञान की भाषा में ‘फुट इन द डोअर’ मनस्थिति कहा जाता है। कुल मिलाकर साइबर अपराधी मानव मनोविज्ञान का दोहन करके आपसे आपके पसीने की कमाई लूट लेते हैं और आप बेबस होकर लुटते जाते हैं। ऐसा करते वक्त साइबर अपराधी के मन में कोई समानुभूति नहीं होती कि वो जिसे अपना शिकार बना रहे हैं, वो कौन है और अपना सब कुछ गंवाने के बाद उसकी मानसिक स्थिति क्या होगी?
इससे बचने का एक ही तरीका है कि ऐसा कोई भी फोन आए, आप अपना मानसिक संतुलन न खोएं और सामने वाले द्वारा दिए जाने वाले आदेशों को बिना सोचे समझे फाॅलो करने से बचें। यथा संभव ऐसे किसी भी फोन काॅल के बारे में परिजनो, मित्रो अथवा पुलिस से शेयर करें। एक क्षण ठंडे दिमाग से सोचना आप को डिजिटल अरेस्ट से बचा सकता है।