राकेश दुबे
वित्तीय प्रबंधन का सर्वमान्य सिद्धांत है कि “राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन के अनुसार राज्य सरकारों का ऋण और देनदारियां राज्य के सकल घरेलू उत्पाद के 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए।“ 2020-21 में मध्य प्रदेश में यह 31.53 प्रतिशत पर पहुंच गया था जबकि केंद्र सरकार के राजकोषीय अनुशासन, जिसके लिए उसे अपने कट्टर विरोधियों से भी प्रशंसा मिलती है, ने केंद्र सरकार के ऋण को सीमा के भीतर रखा है, जबकि केंद्र और राज्य सरकारों का समग्र ऋण बढ़ता जा रहा है। इसका मुख्य कारण राज्य सरकारों की वित्तीय अनुशासनहीनता है।
गौरतलब है कि 2013-14 में जहां राज्य सरकारों का कुल कर्ज और देनदारी जीडीपी का महज 22 फीसदी था, वहीं साल 2018-19 तक (कोरोना से पहले) यह 25.33 प्रतिशत पर पहुंच गया। हालांकि कोरोना के बाद स्वाभाविक तौर पर ये कर्ज और देनदारियां जीडीपी के 31.05 प्रतिशत तक और बढ़ गई थीं। इसलिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों का समग्र ऋण (जिसमें केंद्र सरकार के ऋण और देनदारियां और केंद्र सरकार को छोडक़र अन्य के प्रति राज्य सरकारों की देनदारियां शामिल हैं) 2013-14 में 67 प्रतिशत से 2020-21 में बढक़र 89.41 प्रतिशत हो गया।। इस वृद्धि में पूरा योगदान राज्य सरकारों के ऋण-देनदारियों में वृद्धि का था।
2020-21 तक देश के ज्यादातर राज्यों में कर्ज-जीडीपी अनुपात 20 प्रतिशत से ज्यादा पहुंच गया था। राज्य सरकारों के आंकड़ों के मुताबिक पंजाब में यह 48.98प्रतिशत , राजस्थान में 42.37प्रतिशत , पश्चिम बंगाल में 37.39, प्रतिशत बिहार में 36.73 प्रतिशत , आंध्र प्रदेश में 35.30 प्रतिशत और मध्य प्रदेश में 31.53 प्रतिशत पहुंच गया। लेकिन कैग का कहना है कि अगर राज्य सरकारों के उद्यमों के कर्ज और राज्य सरकारों की गारंटी को भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो राज्य सरकारों का कर्ज असल में कहीं ज्यादा है। कैग के अनुमान के मुताबिक यह पंजाब में जीडीपी का 58.21, राजस्थान में 54.94 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश में 53.77, प्रतिशत तेलंगाना और मध्य प्रदेश में क्रमश: 47.8 प्रतिशत 9 और 47.13 प्रतिशत पहुंच गया था। सीएजी द्वारा परिकलित ऋण और देनदारियां इस संबंध में राज्य सरकारों द्वारा दिए गए आंकड़ों से 10 से 20 प्रतिशत अधिक हैं। अर्थात यह माना जा सकता है कि यद्यपि वर्तमान में केंद्र और राज्य सरकारों का समग्र ऋण सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 84 प्रतिशत है, लेकिन कैग के अनुमान के अनुसार केंद्र और राज्य सरकारों का समग्र ऋण सकल घरेलू उत्पाद के 90 प्रतिशत से अधिक है।
यह उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री आवास योजना ग्रामीण और शहरी दोनों, के तहत गरीबों के लिए आवास के लिए भारी धनराशि के बावजूद, जिसमें 3 करोड़ घर पहले ही बन चुके हैं, कोरोना काल से अब तक 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज, किसी भी कृषि भूमि वाले सभी किसानों को किसान सम्मान निधि, आयुष्मान भारत के तहत करोड़ों लोगों का 5 लाख रुपये तक का मुफ्त इलाज, बुनियादी ढांचे के निर्माण पर भारी खर्च, औद्योगिक उत्पादन को गति देने के लिए लगभग 3 लाख करोड़ रुपये के उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन, कोरोना के दौरान तमाम तरह की राहत और प्रोत्साहन के साथ-साथ पूरी आबादी का टीकाकरण के भारी खर्च के बावजूद केंद्र सरकार का ऋण सीमा के भीतर है, जबकि कई राज्य सरकारें राजकोषीय अनुशासन बनाए रखने में विफल रही हैं।
इस संबंध में भारतीय रिजर्व बैंक का मानना है कि इस खतरे के पीछे मुफ्तखोरी का हाथ है। कर राजस्व का एक बड़ा हिस्सा मुफ्त योजनाओं पर खर्च होता है। पंजाब में यह 45.5 प्रतिशत है, जबकि आंध्र प्रदेश में यह खर्च 30.3 प्रतिशत है। इसी प्रकार मध्यप्रदेश एवं झारखण्ड में कर राजस्व का क्रमश: 28.8 प्रतिशत एवं 26.7 प्रतिशत मुफ्त योजनाओं पर व्यय किया जाता है। जीडीपी के प्रतिशत के रूप में देखा जाए तो पंजाब में जीडीपी का 2.7 प्रतिशत और आंध्र प्रदेश में जीडीपी का 2.1 प्रतिशत मुफ्त योजनाओं के लिए खर्च किया जाता है। आजकल कई राज्यों में अमीर और गरीब सभी को 100 से 200 यूनिट तक मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी और महिलाओं के लिए सार्वजनिक परिवहन में मुफ्त यात्रा, चाहे उनकी आर्थिक स्थिति कुछ भी हो, जैसी योजनाओं की बाढ़ सी आ गई है। यानी, चाहे किसी को मुफ्त बिजली/पानी/यात्रा की जरूरत हो या नहीं, यह सभी के लिए उपलब्ध है। मुफ्त की योजनाओं के कारण, वोट बटोरने के उद्देश्य से, प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद के कारण, राज्यों का कर्ज और इसलिए, देश का कुल कर्ज बढ़ रहा है, जिसे हमारी आने वाली पीढिय़ों को वहन करना होगा।