कौशल किशोर चतुर्वेदी
भगवान 'राम' के बाल स्वरूप की प्राण प्रतिष्ठा के बाद अब देश में राजनीतिक हलचल शुरू हो गई है। 2024 में समाजवादी नेता रहे 'कर्पूरी ठाकुर' को मरणोपरांत 'भारत रत्न' से सम्मानित करने में भी इसकी झलक मिल रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 22 जनवरी तक राम के रंग में रंगे थे, तो 23 जनवरी को उन्होंने ट्वीट कर खुशी जताई कि 'मुझे इस बात की बहुत प्रसन्नता हो रही है कि भारत सरकार ने समाजिक न्याय के पुरोधा महान जननायक कर्पूरी ठाकुर जी को भारत रत्न से सम्मानित करने का निर्णय लिया है। उनकी जन्म-शताब्दी के अवसर पर यह निर्णय देशवासियों को गौरवान्वित करने वाला है। पिछड़ों और वंचितों के उत्थान के लिए कर्पूरी जी की अटूट प्रतिबद्धता और दूरदर्शी नेतृत्व ने भारत के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर अमिट छाप छोड़ी है। यह भारत रत्न न केवल उनके अतुलनीय योगदान का विनम्र सम्मान है, बल्कि इससे समाज में समरसता को और बढ़ावा मिलेगा।'
कर्पूरी ठाकुर के बारे में पहले थोड़ा सा जान लें। कर्पूरी ठाकुर (24 जनवरी 1924 - 17 फरवरी 1988) भारत के स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, राजनीतिज्ञ तथा बिहार राज्य के दूसरे उपमुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं।लोकप्रियता के कारण उन्हें जन-नायक कहा जाता था। कर्पूरी ठाकुर का जन्म भारत में ब्रिटिश शासन काल के दौरान समस्तीपुर के एक गांव पितौंझिया, जिसे अब कर्पूरीग्राम कहा जाता है, में कुर्मी जाति में हुआ था। जननायक जी के पिताजी का नाम श्री गोकुल ठाकुर तथा माता जी का नाम श्रीमती रामदुलारी देवी था। इनके पिता गांव के सीमांत किसान थे तथा अपने पारंपरिक पेशा हल चलाने का काम करते थे।भारत छोड़ो आन्दोलन के समय उन्होंने 26 महीने जेल में बिताए थे। वह 22 दिसंबर 1970 से 2 जून 1971 तथा 24 जून 1977 से 21 अप्रैल 1979 के दौरान दो बार बिहार के मुख्यमंत्री पद पर रहे। सामाजिक रूप से पिछड़ी किन्तु सेवा भाव के महान लक्ष्य को चरितार्थ करती नाई जाति में जन्म लेने वाले इस महानायक ने राजनीति को भी जन सेवा की भावना के साथ जिया। वह सदा गरीबों के अधिकार के लिए लड़ते रहे। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने पिछड़ों को 12 प्रतिशत आरक्षण दिया। इसमें 79 जातियां थी जिसमें पिछड़ा वर्ग को 04% और अति पिछड़ा वर्ग को 08% आरक्षण दिया था।उनका जीवन लोगों के लिया आदर्श से कम नहीं।
कर्पूरी ठाकुर दूरदर्शी होने के साथ-साथ एक ओजस्वी वक्ता भी थे। वह देशवासियों को सदैव अपने अधिकारों को जानने के लिए जगाते रहे। वह कहते थे "संसद के विशेषाधिकार कायम रहें, अक्षुण्ण रहें, बढ़ते रहें, परंतु आवश्यकतानुसार जनता के अधिकार भी बढ़ते रहें। यदि जनता के अधिकार कुचले जायेंगे तो जनता आज-न-कल संसद के विशेषाधिकारों को चुनौती देगी"। कर्पूरी ठाकुर का चिर परिचित नारा था.. "अधिकार चाहो तो लड़ना सीखो पग पग पर अड़ना सीखो जीना है तो मरना सीखो"। 1977 में कर्पुरी ठाकुर ने बिहार के वरिष्ठतम नेता सत्येन्द्र नारायण सिन्हा से नेतापद का चुनाव जीता और राज्य के दो बार मुख्यमंत्री बने। लोकनायक जयप्रकाशनारायण एवं समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया इनके राजनीतक गुरु थे रामसेवक यादव एवं मधुलिमये जैसे दिग्गज साथी थे। लालू प्रसाद यादव, नितीश कुमार, राम विलास पासवान और सुशील कुमार मोदी के वह राजनीतिक गुरु माने जाते हैं। बिहार में पिछड़ा वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था 1977 में उन्होंने की। सत्ता पाने के लिए 4 कार्यकम बने पिछड़ा वर्ग का ध्रुवीकरण, हिंदी का प्रचार प्रसार, समाजवादी विचारधारा और कृषि का सही लाभ किसानों तक पहुंचाना।
कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे। 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे। राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था। ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए। जब करोड़ो रुपयों के घोटाले में आए दिन नेताओं के नाम उछल रहे हों, कर्पूरी जैसे नेता भी हुए, विश्वास ही नहीं होता। उनकी ईमानदारी के कई किस्से आज भी बिहार में सुनने को मिलते हैं। कर्पूरी ठाकुर जब पहली बार उपमुख्यमंत्री बने या फिर मुख्यमंत्री बने तो अपने बेटे रामनाथ को पत्र लिखना नहीं भूले। इस पत्र में तीन ही बातें लिखी होती थीं- तुम इससे प्रभावित नहीं होना। कोई लोभ लालच देगा, तो उस लोभ में मत आना। मेरी बदनामी होगी।” रामनाथ ठाकुर इन दिनों भले राजनीति में हों और पिता के नाम का लाभ भी उन्हें मिला हो, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने अपने जीवन में उन्हें राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ाने का काम नहीं किया। कर्पूरी ठाकुर का जीवन बेदाग रहा। स्वतंत्रता सेनानी कर्पूरी ठाकुर 1952 से लगातार विधायक रहे, पर अपने लिए उन्होंने कहीं एक मकान तक नहीं बनवाया।
वे राजनीति में कांग्रेस पार्टी की राजनीतिक चालों को भी समझते थे और समाजवादी खेमे के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को भी। वे सरकार बनाने के लिए लचीला रूख अपना कर किसी भी दल से गठबंधन कर सरकार बना लेते थे, लेकिन अगर मन मुताबिक काम नहीं हुआ तो गठबंधन तोड़कर निकल भी जाते थे। यही वजह है कि उनके दोस्त और दुश्मन दोनों को ही उनके राजनीतिक फ़ैसलों के बारे में अनिश्चितता बनी रहती थी। कर्पूरी ठाकुर का निधन 64 साल की उम्र में 17 फरवरी, 1988 को दिल का दौरा पड़ने से हुआ था।
बात बस इतनी सी है कि आज के राजनेता कर्पूरी ठाकुर को जन्म शताब्दी पर भारत रत्न मिलने से क्या कुछ सीख लेने को तैयार हैं? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का मानना है कि कर्पूरी ठाकुर को सम्मान समरसता को बढ़ावा देगा, पर क्या राजनीति और राजनेताओं को कर्पूरी ठाकुर की ईमानदारी से कोई लेना देना नहीं बचा? उनकी इस राजनैतिक सोच से कोई लेना-देना नहीं है, जिसमें मुख्यमंत्री-उपमुख्यमंत्री रहा नेता रिक्शे से चले, ईमानदारी का पर्याय हो और बेदाग रहकर राजनीतिक शुचिता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण पेश करे...यह आदर्श ही है। और यह दुर्भाग्य ही है कि उन्हें राजनैतिक गुरु मानने वाले नेता भी उनके आदर्शों का पालन नहीं कर पाए। बीसवीं शताब्दी के ऐसे राजनेता को इक्कीसवीं सदी में 'भारत रत्न' से नवाजकर मोदी सरकार ने सराहनीय फैसला किया है। कर्पूरी ठाकुर को यह सम्मान देश की वर्तमान राजनीति और राजनेताओं को आइना दिखाने का काम कर रहा है। पर बात यही है कि क्या कोई आइना देखने को तैयार है? क्या कोई राजनेता कर्पूरी ठाकुर बनने को तैयार है या देश की वर्तमान राजनीति कर्पूरी के आदर्शों को जीने का साहस जुटा पाएगी...।