राजेश बादल
यह कैसी जम्हूरियत है ? एक सरकार थी। चुनाव के ज़रिए चुनी गई थी। उसने अपने मुल्क़ को लोकतान्त्रिक ढंग से चलाने की शपथ भी ली थी। आप निर्वाचन के तरीक़े पर सवाल उठा सकते हैं ,चुनाव में धांधली के आरोप लगा सकते हैं और विपक्ष के उत्पीड़न की बात भी कर सकते हैं। इसके बावजूद वहाँ शेख हसीना वाजेद की ऐसी हुकूमत थी ,जो अल्पसंख्यकों को सुरक्षा की गारंटी देती थी। वह अपनी आज़ादी के आंदोलन में सहायता करने वाले देश से तमाम असहमतियों के बाद भी अच्छे संबंध बना कर रखती थी।राष्ट्र के संवैधानिक ढाँचे पर उसका नियंत्रण था।लेकिन आज हिन्दुस्तान अपने प्रिय पड़ोसी देश में क्या देख रहा है ? वहाँ हड़बड़ी में सरकार के नाम पर काम चलाऊ व्यवस्था बनाई गई।एक ऐसी सरकार चल रही है ,जो संवैधानिक आधार पर नहीं चुनी गई।जिसने बिना चुनाव कराए ही पूर्णकालिक सरकार की तरह बरताव शुरू कर दिया है।इस सरकार में बैठे लोग ऐसे ऐसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील निर्णय ले रहे हैं ,जिनको लागू करना किसी निर्वाचित सरकार के लिए भी आसान नहीं होता। क्या यह नैतिक और संवैधानिक धरातल पर उचित है कि सरकार चला रहा एक झुण्ड बिना जनादेश लिए इतने महत्वपूर्ण और संवेदनशील फ़ैसले ले ?
इस घटनाक्रम का क्या अर्थ लगाया जाए ? ख़ास तौर पर उन स्थितियों में ,जबकि सारे फ़ैसले भारत विरोधी हो रहे हों।यहाँ तक कि जिन आधारों पर देश का गठन हुआ,उन आधारों को ही बदलने का काम शुरू हो गया है।जिस सैनिक शासन ने कभी शेख मुजीब को पाकिस्तान की सत्ता नहीं संभालने दी ,अब वैसा ही सैनिक शासन संविधान बदलने की राह पर चल पड़ा है।बांग्ला पहचान के नाम पर वहाँ के स्वाधीनता सैनानियों ने पश्चिमी पाकिस्तान से जंग लड़ी,लाखों लोग मारे गए , हज़ारों महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया गया और उनकी नृशंस हत्या कर दी गई ,अब उन्ही आतताइयों के समर्थन से मुल्क़ में सरकार चल रही है।क्या यह देश भूल गया है कि सारे संसार को मातृभाषा दिवस दिलाने का काम बांग्लादेश के छात्रों ने किया था। कहानी यह थी कि पाकिस्तान के हुक्मरान बांग्ला भाषा को हिन्दू संस्कृति से जोड़कर देखते थे। इस कारण वे पूर्वी पाकिस्तान से बांग्ला भाषा का नामोनिशान मिटा देना चाहते थे और उर्दू थोपना चाहते थे ।लेकिन वहाँ के लोग बांग्ला संस्कृति को नहीं छोड़ना चाहते थे। विरोध में ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों ने 21 फरवरी 1952 को बांग्ला भाषा के समर्थन में प्रदर्शन किया। उन पर पाकिस्तानी सेना ने गोलियाँ बरसाईं। इसमें सोलह छात्र मारे गए थे । इसके बाद यूनेस्को ने 1999 में मातृभाषा के लिए क़ुर्बानी देने वाले छात्रों की याद में अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने का ऐलान किया था। अब उसी बांग्ला भाषा को हटाने पर काम चल रहा है।याने अब वही हो रहा है ,जो पाकिस्तानी फ़ौजी सत्ता 1952 में चाहती थी। विडंबना है कि वे अब अपने राष्ट्रगान को भी बदलना चाहते हैं , क्योंकि वह एक भारतीय गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा था।ज़ाहिर है सत्ता पलटने की यह साज़िश शेख हसीना के विरुद्ध नहीं ,बल्कि भारत के विरुद्ध थी।
तनिक अंतरराष्ट्रीय अतीत को टटोलें तो स्पष्ट हो जाता है कि भारत के विभाजन के बाद से ही पाकिस्तान पर अमेरिका का वरदहस्त रहा है। उसने पाकिस्तान को कठपुतली की तरह इस्तेमाल किया। इसी तरह इस मुल्क़ पर चीन ने अपना प्रभाव बना कर रखा। उन दिनों शीत युद्ध की स्थिति में अमेरिका बनाम सोवियत संघ की स्थिति बनी हुई थी । जब सोवियत संघ का विखंडन हो गया और धीरे धीरे चीन महाशक्ति के रूप में उभरा तो फिर यह अमेरिका बनाम चीन हो गया। हालाँकि सोवियत संघ के विखंडन के बाद रूस की ताक़त भी कम नहीं थी,इसलिए अमेरिका बीते तीन दशक से गंभीर प्रयास कर रहा है कि रूस और चीन पर नज़र रखने के लिए अपना सैनिक अड्डा भारतीय उप महाद्वीप में क़ायम करे। इसके लिए उसने सबसे पहले पाकिस्तान को चुना ,किन्तु चीन के असर से पाकिस्तान ऐसा नहीं कर सका।यह प्रस्ताव उसने इमरान ख़ान के प्रधानमंत्री रहते किया था मगर इमरान ने भी मना कर दिया।आपको याद होगा कि सत्ता से हटाए जाने के बाद ही इमरान ख़ान ने बयान दिया था कि उनकी सरकार अमेरिका के इशारे पर गिराई गई है। उन्हें जेल में डालने का काम भी अमेरिका के इशारे पर हुआ है। यह बात छिपी नहीं है। उसने तो भारत पर डोरे डाले थे । यूपीए सरकार के दरम्यान हुआ परमाणु समझौता इस दिशा में भारत को ललचाने वाला क़दम माना जा सकता है। भारतीय लोकतंत्र की मज़बूती के चलते यहाँ भी उसकी दाल नहीं गली। इसके बाद उसने नेपाल का रुख किया।ज़ाहिर है कि भारत और चीन -दोनों ही इसके पक्ष में नहीं थे। इसलिए नेपाल से भी अमेरिका को निराशा लगी।
इसके बाद ले देकर बांग्लादेश बचता था।अमेरिका ने शेख हसीना से सेंट मार्टिन द्वीप माँगा था पर,शेख हसीना ने इनकार कर दिया। उन्होंने अपनी सरकार गिरने के बाद कहा था ," मैं सत्ता में बनी रह सकती थी,अगर मैंने सेंट मार्टिन की संप्रभुता को छोड़ दिया होता और अमेरिका को बंगाल की खाड़ी में अपना रुतबा क़ायम करने दिया होता "।आपको याद दिला दूँ कि जब बांग्लादेश पाकिस्तान का हिस्सा था तो भारत की घेराबंदी करने के लिए फौजी तानाशाह जनरल अयूब ख़ान ने इस द्वीप को अपने शासनकाल में अमेरिका को पट्टे पर दे दिया था। जब बांग्लादेश बना तो पट्टा समाप्त कर दिया गया। शेख़ हसीना के लिए वह मुश्किल घड़ी थी ,जब अमेरिका ने यह द्वीप फिर पट्टे पर माँग लिया था। बांग्लादेश के शेख हसीना सरकार से भी मधुर संबंध थे और भारत के अलावा चीन से भी उसे अपनी परियोजनाओं के लिए मदद मिलती रही है। ऐसे में अमेरिका को ख़ुश करने के लिए वह अपने दो बड़े पड़ोसियों-भारत और चीन से बैर मोल नहीं ले सकती थी।
जब सीधी ऊँगली से घी नहीं निकला तो अमेरिका ने पाकिस्तान की सेना और आई एस आई की मदद ली।पाकिस्तान तो इसके लिए उतावला ही था। उसने एक तीर से दो निशाने कर लिए । एक तो बांग्लादेश में कट्टरपंथी सरकार बन गई ,जो इस्लाम का शासन स्थापित कर रही है और दूसरा भारत की पूर्वी सीमा पर अपनी घेराबंदी कर दी। अब भारत के दक्षिण में श्रीलंका में चीन का हंबनटोटा बंदरगाह है ,पश्चिम में पाकिस्तान का ग्वादर बंदरगाह उसके अधिकार में है ,उत्तर में वह स्वयं बैठा हुआ है और पूरब में उसकी कठपुतली पाकिस्तान के समर्थन वाली सरकार बांग्लादेश में आ गई। भारतीय विदेश नीति और कूटनीति के लिए यह घनघोर परीक्षा की घड़ी है।