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Added on : 2024-08-07 11:53:59

राकेश दुबे
बांग्लादेश में आरक्षण विरोधी हिंसा में तीन सौ से अधिक लोग मारे गए। सरकार भी गई और प्रधान मंत्री देश छोड़ कर भागी । प्रथम दृष्टया, हसीना सरकार के पतन की वजह आरक्षण विरोधी आंदोलन से उपजा आक्रोश बताया जा रहा हो,मगर इसकी बुनियाद सात माह पूर्व हुए चुनाव के बाद ही पड़ गई थी। 
दरअसल, इस संकट की मूल वजह लोकतांत्रिक नेतृत्व का तानाशाह बन जाना था। लगातार चार बार प्रधानमंत्री बनने वाली शेख हसीना ने जनाक्रोश को हल्के में लिया। इससे जनमानस में यह भाव पैदा हुआ कि उनके लोकतांत्रिक अधिकार से खिलवाड़ किया जा रहा है। 
हालांकि,पाक परस्त राजनीतिक दलों ने इस आक्रोश को अपने लिए सत्ता का रास्ता बनाने में इस्तेमाल किया, लेकिन संकट को शह देने में विदेशी ताकतें भी पीछे नहीं रही। दक्षिणपंथी रुझान वाली बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी यानी बीएनपी और अन्य राजनीतिक दलों ने आम चुनाव का बहिष्कार किया था। शेख हसीना लगातार चौथी बार सत्ता में तो आई, लेकिन विपक्षी दल जनता में यह संदेश देने में कामयाब रहे कि चुनावों में धांधली हुई है। इस तरह चुनावों के संदिग्ध तौर-तरीकों ने शेख हसीना की जीत को धूमिल कर दिया। इसका अंतर्राष्ट्रीय जगत में अच्छा संदेश नहीं गया। तभी पिछले महीनों में अपनी सरकार के लिये अंतर्राष्ट्रीय समर्थन जुटाने हेतु शेख हसीना ने भारत व चीन की यात्रा की थी। हालांकि, इस दौरान देश में स्थितियां उनके अनुकूल नहीं थी। 
वास्तव में शेख हसीना लगातार विस्फोटक होती स्थितियों का सावधानी से आकलन नहीं कर पाईं। आरक्षण आंदोलन को दबाने के लिये की गई सख्ती ने आग में घी का काम किया।लगातार चौथी बार सरकार बनाने वाली शेख हसीना के खिलाफ उपजे आक्रोश के मूल में तात्कालिक कारण अतार्किक आरक्षण ही रहा, लेकिन विपक्षी राजनीतिक दल व उनके आनुषंगिक संगठन सरकार को उखाड़ने के लिये बाकायदा मुहिम चलाये हुए थे। दरअसल, वर्ष 1971 में बांग्लादेश को पाकिस्तान के दमनकारी शासन से आजादी दिलाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों की तीसरी पीढ़ी के रिश्तेदारों के लिये उच्च सरकारी पदों वाली नौकरियों में तीस प्रतिशत आरक्षण का विरोध छात्रों ने किया। उनका तर्क था कि उनकी कई पीढ़ियां आरक्षण का लाभ उठा चुकी हैं, फलत: बेरोजगारों को नौकरियां नहीं मिल रही हैं,लेकिन आंदोलन को हसीना सरकार ढंग से संभाल नहीं पायी। आंदोलनकारियों से निबटने के लिये की गई सख्ती से आंदोलन लगातार उग्र होता गया। इसका विपक्षी राजनीतिक दलों ने भरपूर लाभ उठाया। हालांकि,सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को घटाकर पांच प्रतिशत कर दिया था, लेकिन सरकार इस संदेश को जनता में सही ढंग से नहीं पहुंचा सकी। फिर छात्र नेताओं की गिरफ्तारी ने आंदोलन को उग्र बना दिया।  आंदोलनकारी सड़कों पर उतर आए। उन्होंने हसीना सरकार के खिलाफ  मोर्चा खोल दिया। जनाक्रोश के चरम का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आक्रामक भीड़ ने मुक्ति आंदोलन का नेतृत्व करने वाले ‘बंगबंधु’ शेख मुजीबुर रहमान की मूर्ति तक को तोड़ दी । 
निस्संदेह, सत्ता से चिपके रहने के लिये किए जाने वाले निरंकुश शासन की परिणति जनाक्रोश के चरम के रूप में सामने आती है। यह घटनाक्रम श्रीलंका में 2022 के विरोध प्रदर्शन की याद ताजा कर गया,जिसमें वहां राजपक्षे बंधुओं को सत्ता से उतरकर विदेश भागने को मजबूर होना पड़ा था। फिलहाल बांग्लादेश में सेना ने कमान अपने हाथ में ली है लेकिन आने वाली सरकार को उच्च बेरोजगारी, आर्थिक अस्थिरता, मुद्रास्फीति जैसे ज्वलंत मुद्दों का समाधान करना होगा। भारत के हसीना सरकार से मधुर संबंध थे, लेकिन हालिया उथल-पुथल को देखते हुए हमें अपनी विदेश नीति में बदलाव करना होगा। पाकिस्तान परस्त बीएनपी और जमात -ए- इस्लामी की आसन्न वापसी से भारतीय उपमहाद्वीप में उत्पन्न होने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों के प्रति सावधान रहने की जरूरत होगी।

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