राजेश बादल
मणिपुर के मुख्यमंत्री के निर्देश पर राज्य पुलिस ने एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया के तथ्यान्वेषी दल के तीन सदस्यों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज़ किया है। ये सदस्य हैं - सुश्री सीमा गुहा ,भारत भूषण zऔर संजय कपूर। तीनों ही भारतीय पत्रकारिता में सम्मानित नाम हैं और वरिष्ठ संपादकों की श्रेणी में हैं। वे दशकों से इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं और आज तक उनके लेखन या पत्रकारिता के पेशेवर आचरण पर कोई सवाल नहीं उठे हैं। तीनों वरिष्ठ पत्रकार एडिटर्स गिल्ड की ओर से मणिपुर में महीनों से जारी हिंसा और वहाँ की पत्रकारिता के बारे में अध्ययन करने के लिए भेजे गए थे।एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया भारत के संपादकों की सर्वोच्च सम्मानित संस्था है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गिल्ड के सदस्य अपने प्रोफेशनल काम तथा गंभीरता के कारण पहचाने जाते हैं । सात से दस अगस्त तक इस त्रिसदस्यीय दल ने मणिपुर जाकर गहरा अध्ययन किया था और तथ्यों की पड़ताल की थी ।
सन्दर्भ के तौर पर बता दूँ कि गिल्ड को भारतीय सेना की ओर से भी एक लिखित शिकायत मिली थी। इसमें कहा गया था कि मणिपुर की स्थानीय पत्रकारिता पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर रिपोर्टिंग कर रही है। गिल्ड के लिए यह भी चिंता की बात थी। गिल्ड की टीम ने मणिपुर से लौटकर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। रिपोर्ट में राज्य सरकार की उन कमज़ोरियों की ओर ध्यान खींचा गया था ,जिसके कारण हालात बद से बदतर होते गए और पत्रकार स्वतंत्र तथा निष्पक्ष रिपोर्टिंग नहीं कर सके। इंटरनेट पर पाबंदी ने भ्रम फैलाने का काम किया और सही जानकारियां लोगों तक नहीं पहुँच सकीं। इसके बाद मुख्यमंत्री ने गिल्ड के तथ्यान्वेषी दल के सदस्यों को देशद्रोही बताया।उनकी सरकार ने दबाव डालकर मणिपुर के दो पत्रकार संगठनों को गिल्ड के खिलाफ़ बयान जारी करने के लिए बाध्य किया । मुख्यमंत्री का यह आचरण लोकतांत्रिक भावना के अनुरूप नहीं है ।यदि मुख्यमंत्री को एक बार सच मान लिया जाए तो क्या भारतीय सेना की शिकायत झूठी है ?
मणिपुर सरकार की नाकामी किसी से छिपी नहीं है । वह हिंसा रोकने में विफल रही है ।इसके बाद भी वह चोरी और सीनाजोरी की तर्ज़ पर पत्रकारिता का दमन कर रही है । मणिपुर सरकार के रवैए से विश्व में भारत की छबि ख़राब हुई है । इस पर चिंता करना लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की ज़िम्मेदारी है । मुझे याद है कि जब बिहार में जगन्नाथ मिश्र की कांग्रेस सरकार ने प्रेस बिल पेश किया था तो उसका देशव्यापी विरोध हुआ था । हम लोग सड़कों पर आए थे ।वह बिल अभिव्यक्ति की आज़ादी पर आक्रमण था ।विरोध इतना मुखर हुआ कि सरकार को अपना विधेयक वापस लेना पड़ा था । उस विधेयक के विरोध को भरपूर जन समर्थन मिला था ।कितनी ही मजबूत सरकार हो,जनमत के आगे उसे झुकना ही पड़ता है ।कुछ पत्रकारों को ख़रीदकर कोई सरकार हक़ीक़त को झुठला नहीं सकती।बरतानवी हुक़ूमत ने भी यही किया था। बाद में उसकी क्या दुर्गति हुई - यह किसी से छिपा नहीं है। मणिपुर के ज़िद्दी मुख्यमंत्री को आज नही तो कल यह सचाई समझनी पड़ेगी । लेकिन उस स्थिति से पहले मुल्क के पत्रकारों और संपादकों को एकजुट होना पड़ेगा । यदि नही हुए तो एक दिन ज़बान और कलम पर पहरा बिठा दिया जाएगा ।
ताला लगा के आप हमारी ज़बान को / क़ैदी न रख सकेंगे ज़ेहन की उड़ान को/