राजेश बादल
पाकिस्तान में गुरुवार को फ़ौज अपनी सरकार और अपने विपक्ष का चुनाव करेगी।इस काम में अवाम उसकी सहायता करेगी। बीते सत्तर साल से वह ऐसा करती आ रही है।हर चुनाव में भरपूर मदद देने के बाद भी जनता वहाँ लोकतंत्र की लड़ाई हार जाती है।ऐसी निर्वाचन प्रणाली से देश को क्या लाभ होता है, यह प्रश्न दशकों से राजनीतिक प्रेक्षकों को परेशान करता रहा है।समय की स्लेट पर एक साथ अस्तित्व में आए दो जुड़वाँ राष्ट्रों की तक़दीर इतनी अलग अलग भी हो सकती है,यह पहेली बूझना बहुत कठिन नहीं तो आसान भी नहीं है।आम तौर पर किसी भी राष्ट्र की सुरक्षा के लिए सेना होती है।भारत में भी ऐसा ही है।मगर,पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क़ है,जहाँ उसके जन्म के बाद से ही सेना ने अपने लिए मुल्क़ का निर्माण किया है।इस कारण देश की अपनी प्राथमिकताएँ कभी फ़ौज की अपनी प्राथमिकताएँ नहीं बनीं। जब इसका समाज की ओर से प्रतिरोध किया गया ,तो सेना ने उन्हेंमुलकके लिए ख़तरा माना। फैज़ अहमद फैज़,अहमद फ़राज़,कुर्रतुल ऐन हैदर,जोश मलीहाबादी,मंटो,सज्जाद ज़हीर,साहिर लुधियानवी और हमीद अख़्तर जैसे अनगिनत सितारे पाकिस्तानी सैनिक तंत्र का निशाना बने हैं।सीमान्त गांधी ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान से लेकर शेख़ मुजीबुर्रहमान तक फ़ौजी शिकार हुए हैं। इनमें से अनेक तो भारत लौट आए और सम्मान से अपनी ज़िंदगी काटी। पाकिस्तानी फ़ौज के इस रवैये का कारण यही है कि अँगरेज़ी संस्कारों वाली फ़ौज ने कभी अपने को पाकिस्तानी माना ही नहीं।जब मुल्क़ बना तो वह चंद मुठ्ठी भर भावुक लोगों का सपना था ,जो पाकिस्तान बनने के बाद बिखर गया। सेना इस नए नवेले देश पर बरतानवी हुक़ूमत की परंपरा क़ायम रखते हुए विदेशियों की तरह राज करती रही।इस संगठन ने तो इस्लामी संस्कार भी नहीं अपनाए। अँगरेज़ों की तर्ज़ पर फूट डालो - राज करो की शैली में उसने मुसलमानों को उपधर्मों और खण्डों में बाँट दिया।उनमें केवल शिया और सुन्नी का विभाजन ही नहीं रहा। वे पठान हो गए,बलूची हो गए,मुहाज़िर हो गए,अहमदिया हो गए ,बोहरा हो गए,सिंधी हो गए और पंजाबी हो गए।इन सभी उपधर्मों तथा अन्य अनुयाइयों ने पाकिस्तान को तो अपना लिया,लेकिन पाकिस्तान की सेना ने उनको नहीं अपनाया। ठीक वैसा ही,जैसे कि उसने बांग्लाभाषियों को नहीं मान्यता दी थी।सारे पाकिस्तान में आज भी सुन्नियों को छोड़कर बाक़ी मुसलमान परायों की तरह रह रहे हैं।
फ़ौज के इस चरित्र को पाकिस्तानी आम चुनाव के ठीक पहले दोहराने का मतलब यही है कि षड्यंत्रपूर्वक तोड़े गए इस सामाजिक तानेबाने का असर वहाँ के सियासी चरित्र पर भी पड़ा है ।पचहत्तर साल बाद भी पाकिस्तान की कोई अखिल राष्ट्रीय पार्टी नहीं उभर पाई है।भारत में तो फिर भी दो राष्ट्रीय पार्टियाँ -भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस आमने सामने होती हैं और क्षेत्रीय दल भी अनेक प्रदेशों में सत्ता में हैं।लेकिन,पाकिस्तान में ऐसा नहीं हैं।बिलावल भुट्टो की अगुआई वाली पाकिस्तान पीपल्स पार्टी सिंध के मतदाताओं की दया पर निर्भर है तो शरीफ़ बंधुओं की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग ( नवाज़ ) पंजाब के वोटरों के इर्द गिर्द घूमती है।पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान नियाज़ी की पाकिस्तान तहरीके इन्साफ पख्तूनिस्तान और आसपास के सीमान्त इलाक़ों में जनाधार वाली पार्टी है।अवामी नेशनल पार्टी ख़ैबर पख़्तूनख्वा भी क्षेत्रीय पार्टी है।मुत्ताहिदा क़ौमी मूवमेंट पाकिस्तान,जमाते इस्लामी,जमीयत ए उलेमा और बलूचिस्तान अवामी पार्टी जैसे कुछ सूबाई राजनीतिक दल भी चुनाव मैदान में हैं। लेकिन,उनका असर इतना कम है कि उनकी नुमाइंदगी बमुश्किल दहाई में पहुँच पाती है।दिखावे के राष्ट्रीय चरित्र वाली दो ख़ानदानों की पार्टियाँ ही मैदान में हैं। वे नवाज़ - शाहबाज़ शरीफ़ और भुट्टो ख़ानदानों की हैं।तीसरी तथाकथित राष्ट्रीय पार्टी इमरान ख़ान की है,जिसका इस चुनाव में कोई औपचारिक वजूद ही नहीं है।उसका चुनाव चिह्न क्रिकेट का बल्ला छीन लिया गया है।उसके सारे उम्मीदवार निर्दलीयों के रूप में लड़ रहे हैं।इमरान ख़ान चौदह साल के लिए जेल में हैं और वे क़ैद में रहते हुए ही अपने प्रत्याशियों का प्रचार कर रहे हैं। याने आप मान लें कि फ़ौज के घनघोर विरोधी इमरान ख़ान की पार्टी चुनाव से पहले ही विसर्जित हो चुकी है। अब लड़ाई भुट्टो और शरीफ़ खानदानों की पार्टी में है। यह दोनों दल एक तरह से सेना की गोद में बैठे हुए हैं।इनमें से कोई एक दल सरकार बनाएगा और दूसरा विपक्ष में बैठेगा।इस तरह पक्ष और विपक्ष दोनों ही सेना की बजाई धुन पर नाचेंगे।क्या ही दिलचस्प नज़ारा है कि पाकिस्तान में यदि कोई राष्ट्रीय चरित्र वाली पार्टी है तो वह सेना है और उसका कोई अपना राष्ट्रीय चरित्र ही नहीं है।सेना सीधे कभी चुनाव मैदान में नहीं उतरती।उसकी शैली आज भी गोरी सत्ता की तरह बरक़रार है।वह केवल सियासी दलों को लड़वाने का काम करती है।अब वह अय्यूब ख़ान,याह्या ख़ान,जनरल ज़िया उल हक़ और परवेज़ मुशर्रफ़ की तरह सीधे मार्शल लॉ याने सैनिक शासन लगाकर बदनामी मोल नहीं लेती।वह एक तीर से कई निशाने कर लेती है।शिखर स्तर पर सेना अमेरिका से आशीर्वाद लेती है और चुनी हुई सरकार चीन के गीत गाती है। इस तरह दोनों महाशक्तियों के साथ उसका संतुलन बना रहता है।दोनों महाशक्तियाँ भी प्रसन्न रहती हैं।
मान लीजिए कि यदि गुरूवार को मतदान के बाद दोनों बड़े दलों को बहुमत नहीं मिला तो इमरान पार्टी के निर्दलीय सांसदों की सहायता ली जाएगी। इसमें नवाज़-शाहबाज़ की पार्टी बाज़ी मार सकती है।परदे के पीछे वजह यह है सेना में पंजाब का रौब और रुतबा ज़्यादा है। छह सेनाध्यक्ष पंजाबी थे। इसके अलावा क़रीब पैंतीस बरस तक पंजाबियों ने सरकार चलाई है।मगर इस चुनाव में निर्दलीयों के तौर पर चुनाव लड़ रहे इमरान ख़ान के उम्मीदवार लोकप्रियता में दोनों बड़े दलों से काफी आगे हैं।इसलिए परिणाम दिलचस्प तो होंगे,उससे ज़्यादा दिलचस्प सरकार के गठन की प्रक्रिया होगी।