राजेश बादल
तो एक बार फिर वही हुआ ,जिसका डर था। पाकिस्तान में लोकतंत्र को फ़ौजी तानाशाही ने निगल लिया। मैंने इसी स्तंभ में डेढ़ दो महीने पहले ही लिखा था कि भारत के इस पड़ोसी देश में अरसे बाद सेना के ख़िलाफ़ अवाम सड़कों पर आई है।जम्हूरियत के नज़रिए से यह शुभ संकेत है। पाकिस्तान में सेना अपनी म्यान में चली जाए और सियासी हाथों में सत्ता सुरक्षित हो जाए ,तो इससे बेहतर और क्या हो सकता है। इससे भारत के साथ संबंधों को पटरी पर लाने में मदद मिल सकती है और पाकिस्तान में एक नई शुरुआत हो सकती है। लेकिन उम्मीद टूट गई। सेना ने दुनिया को पुनः सन्देश दे दिया कि अभी उसकी पकड़ ढीली नहीं हुई है। पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान को तीन साल के लिए जेल में डालने का फ़ैसला भले ही अदालत ने किया हो ,पर विश्व तो यही समझता है कि यह सब सेना के इशारे पर हुआ है।
वैसे पाकिस्तान को गहराई से समझने वाले जानकारों को भी लगता था कि फ़ौज इतनी आसानी से मुल्क के सियासतदानों के आगे समर्पण नहीं करेगी। बीते पचहत्तर साल में इस राष्ट्र में लोकतंत्र की कुछ बिजलियाँ कौंधीं थीं ,पर वे शीघ्र ही विलुप्त हो गईं। सेना ने इसे अपने जबड़े से मुक्त नहीं होने दिया। सिर्फ़ एक बार ऐसा हुआ ,जब सैनिक शासक जनरल अयूब ख़ान के विरोध में जन आंदोलन इतना तेज़ हुआ कि उन्हें सत्ता छोड़कर भागना पड़ा था। इसके बाद सेना ने अपने लिए सरकारें चुनीं और उन्हें अपने इशारों पर नचाया। जब किसी राजनेता ,सियासी पार्टी या सरकार ने मज़बूती दिखाने अथवा सेना को आँखें दिखाने का साहस किया तो उसे अंजाम भुगतना पड़ा। ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को सरे आम फाँसी पर लटका दिया गया और चुनिंदा पत्रकारों को बुलाकर उसका कवरेज़ कराया गया। वह भयानक बर्बरता थी।शेख़ मुजीबुर्रहमान के साथ जो सुलूक किया गया ,सारा संसार उसका गवाह है।पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो को अपनी लोकप्रियता की क़ीमत जान देकर चुकानी पड़ी।सार्वजनिक रूप से उनकी हत्या का मक़सद वही था ,जो उनके पिता को सूली चढाने का था।यह बताने की ज़रुरत नहीं कि सेना ही उसके पीछे थी। अलबत्ता यह हश्र नवाज़ शरीफ़ का नहीं हुआ।तानाशाह परवेज़ मुशर्रफ ने उनकी जान नहीं ली ,पर उन्हें पाकिस्तान में रहने भी नहीं दिया । परदे के पीछे की कहानी यही है कि उनके भाई और मौजूदा प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ के हमेशा सेना से गहरे कारोबारी रिश्ते रहे हैं। फ़ौज के अनेक आला अफसरों की कलंक कथाएँ शाहबाज़ शरीफ़ के सहयोग से लिखी गई हैं। नवाज़ शरीफ़ को इसी कारण मुल्क़ से निर्वासन का सामना करना पड़ा ,पर उनको जान माफ़ी मिल गई। ग़ौरतलब है कि कुछ समय से नवाज़ शरीफ़ के सुर भी नरम पड़े हैं। अब वे सेना के विरोध में आग नहीं उगल रहे हैं ,जैसा पहले किया करते थे।
यह याद करना दिलचस्प है कि जब इमरान ख़ान प्रधानमंत्री थे और सेना के चहेते थे तो नवाज़ शरीफ़ की पार्टी सुप्रीम कोर्ट के सामने धरने पर बैठी थी। उसका आरोप था कि इमरान ख़ान और सेना मिलकर नवाज़ शरीफ़ को तंग कर रहे हैं । इसके बाद जब इमरान ख़ान नियाज़ी ने प्रधानमंत्री पद छोड़ा और उनके स्थान पर शाहबाज़ शरीफ आए तो उन्होंने इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ उपहारों में हेरा फेरी का मामला दर्ज़ कराया। शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें राहत देते हुए जेल से रिहा करने का आदेश दिया । सुप्रीम कोर्ट के रवैये के विरोध में पाकिस्तान सरकार भी बाक़ायदा धरना देकर बैठी। सरकार को सेना का समर्थन भी था। अब इमरान ख़ान को सजा मिली है। इसके पीछे भी सेना की भूमिका है। असल में कहानी यह है कि पाकिस्तानी सेना हमेशा से अमेरिका की गोद में बैठी रही है। जब इमरान ख़ान ने खुले आम कहना प्रारंभ कर दिया कि अमेरिका उन्हें हटाना चाहता है तो फिर पाकिस्तान में सक्रिय अमेरिकी लॉबी ने उन्हें पद से हटवा ही दिया। तभी से इमरान फ़ौज की आँख का कांटा बन गए थे। पद से हटने के बाद वे लगातार सेना पर तीखे हमले कर रहे हैं। वे फौजी धुन पर नहीं नाचे। इसका खामियाज़ा उन्हें भुगतना पड़ा। जब तक इमरान ख़ान की पार्टी और शाहबाज़ शरीफ तथा बिलावल भुट्टो की पार्टी का गठबंधन अपनी लड़ाई में व्यस्त था तो लगने लगा था कि मुल्क में राजनीतिक गतिविधियाँ बहाल हो रही हैं।एक स्थिति तो यह भी बनी थी ,जब इमरान ख़ान ने फ़ौज को हाशिए पर धकेल दिया था। एक तरह से सारा देश सेना के विरोध में खड़ा हो गया था। जगह जगह फ़ौज के ख़िलाफ़ प्रदर्शन होने लगे थे। देश के लिए यह अच्छी स्थिति थी क्योंकि पाकिस्तान का आम नागरिक वास्तव में सेना के चंगुल से बाहर निकलना चाहता है। पर,ऐसा नहीं हुआ ।सेना इमरान ख़ान को मिल रहे जन समर्थन से भयभीत हो गई। अब तीन साल की जेल और चुनाव लड़ने पर रोक लग जाने से फ़ौज का एक मुखर आलोचक सींखचों के भीतर है और शाहबाज़ शरीफ - बिलावल भुट्टो सरकार को भी चुनाव के मैदान में उतरना लाभदायक हो सकता है। कहा जा सकता है कि लोकतंत्र एक बार फिर हाशिए पर चला गया है ।
तय कार्यक्रम के अनुसार पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली नौ अगस्त को भंग होनी है। इसके बाद नब्बे दिन के भीतर चुनाव संपन्न कराए जाने हैं। लेकिन संकेत मिल रहे हैं कि चुनाव कुछ महीनों के लिए टाले जा सकते हैं। परदे के पीछे इसकी वजह वर्तमान गठबंधन को तैयारी का समय देना है। इसके अलावा इमरान ख़ान की पार्टी में प्रमुख नेताओं की धरपकड़ और गिरफ़्तारी की आशंकाएं भी हैं। कुल मिलाकर पाकिस्तान और लोकतंत्र के बीच का फ़ासला बढ़ता जा रहा है। भारतीय उप महाद्वीप के लिए यह अच्छी ख़बर नहीं है।