राजेश बादल
पाकिस्तानी सेना जीत कर भी हार गई । अब तक के आम चुनावों में वह आसानी से अपनी तय योजना को अंजाम देती रही है । लेकिन इस बार उसे नाकों चने चबाने पड़ गए । जनादेश से स्पष्ट है कि अब सेना पाकिस्तान में लोकतंत्र की अधिक समय तक उपेक्षा नहीं कर सकती । फ़ौजी ताक़त के बल पर राज करने के उसके दिन अब लद गए । ताज़ा सूचनाएँ हैं कि वह अब जेल में बंद पाकिस्तान तहरीके इंसाफ़ के सुप्रीमो इमरान ख़ान से सीधे संपर्क कर रही है। इमरान से फ़ौज के सर्वोच्च आला अफसर चुप - चर्चा कर रहे हैं। उनसे कहा जा रहा है कि उन्हें ढेर सारी सुविधाएँ दी जाएँगीं ,लेकिन वे विरोध करना बंद कर दें और नवाज़ -बिलावल की पार्टियों की गठबंधन सरकार बन जाने दें। इमरान ने सेना से साफ़ कह दिया है कि फौज अमेरिकी धुन पर नाचना बंद करे। ज़ाहिर है सेना को अब पता चल गया है कि मुल्क़ में अब उसके ख़िलाफ़ बयार नहीं ,बल्कि आंधी चल पड़ी है।बाक़ी माँगों पर इमरान के सामने झुकने के अलावा कोई विकल्प नहीं है क्योंकि जेल में बंदी के रूप में ज़िंदगी के चौदह साल वे बरबाद नहीं कर सकते।वे निर्वासित जीवन अथवा भुट्टो की तरह सूली पर टांगा जाना भी पसंद नहीं करेंगे।
एक बार हालिया घटनाक्रम पर भी नज़र डालना ज़रूरी लगता है।वैसे तो सेना ने पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ की पार्टी को सत्ता में लाने की पटकथा चुनाव से पहले ही लिख दी थी।उसने अपने घनघोर आलोचक इमरान ख़ान नियाज़ी की पार्टी तहरीके इंसाफ़ को हुक़ूमत से दूर रखने के लिए सारे हथकंडों का इस्तेमाल कर लिया था।इमरान ख़ान जेल में डाल दिए गए।उन्हें चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया। पार्टी का चुनाव चिह्न छीन लिया गया और पार्टी को प्रत्याशी निर्दलीय उम्मीदवारों के रूप में उतारने पड़े। इसके बावजूद उन उम्मीदवारों ने पाकिस्तान मुस्लिम लीग ( नवाज़ ) और बिलावल ज़रदारी भुट्टो की पाकिस्तान पीपल्स पार्टी को धूल चटा दी। मुल्क़ के लिए यह शुभ लक्षण है।भले ही नवाज़ शरीफ़ की पार्टी फिर सरकार बना रही है ,लेकिन अब पूरा विश्व जान गया है कि उस दल को सत्ता सौंपी गई है,जिसे जनता ने बहुमत नहीं दिया है।नवाज़ शरीफ़ की पार्टी अपने नैतिक आधार से खिसकी हुई स्याह चेहरे के साथ जनता के सामने प्रस्तुत है।
दरअसल पाकिस्तान में अब तक अपराजेय रही सेना साल डेढ़ साल से अपना दबदबा क़ायम रखने के लिए संघर्ष कर रही है।कुछ समय से उसका हर दाँव उल्टा पड़ रहा है। आपको याद होगा कि इमरान ख़ान को हटाकर जब शाहबाज़ शरीफ़ के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनाई गई थी ,तभी से आम जनता के बीच आक्रोश पनपता रहा।एक तरफ सेना और शाहबाज़ शरीफ़ की सरकार थी तो दूसरी ओर सर्वोच्च न्यायालय तथा पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की पार्टी। दो पाटों के बीच अवाम पिस रही थी।पहले फ़ौज और इमरान ख़ान की सरकार एकजुट थी तो नवाज़ शरीफ़ के मामले आला अदालत में थे ।उस समय उनकी पार्टी सुप्रीम कोर्ट के सामने धरने पर बैठी थी।जब न्यायपालिका का पलड़ा इमरान ख़ान के पक्ष में झुका दिखाई दिया तो सरकार न्यायपालिका के ख़िलाफ़ धरने पर बैठ गई थी ।सर्वोच्च न्यायालय ने तो पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की गिरफ़्तारी ग़ैर क़ानूनी बताते हुए उनको रिहा करने के आदेश दिए थे। इमरान ख़ान पर पद पर रहते हुए मिले तोहफों की हेराफेरी के आरोप हैं। उनके पार्टी कार्यकर्ता देश भर में हिंसा और उपद्रव पर उतर आए थे ।हिंसा में अनेक जानें चली गई । जनता का सेना से मोहभंग हो गया।सेना के लिए यह बड़ा झटका था ।
असल में पाकिस्तान ने जबसे दुनिया के नक़्शे में आकार लिया,तबसे एकाध अपवाद छोड़कर फ़ौज ही हुक़ूमत करती रही है ।उसने न तो वहां लोकतंत्र पनपने दिया और न निर्वाचित सरकारें उसके इशारे के बिना ढंग से राज कर पाईं । संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की संक्षिप्त पारी छोड़ दें तो कोई भी राजनेता तभी काम कर पाया,जब उसने सेना के साथ तालमेल बिठाया । सेना के बिना उसका अस्तित्व अधूरा रहा है। हालाँकि अंतिम दिनों में जिन्ना भी अपनी छबि में दाग़ लगने से नहीं रोक पाए थे। उनको उपेक्षित और हताशा भरी ज़िंदगी जीनी पड़ी थी।वे अवसाद में चले गए थे। उनके उत्तराधिकारियों ने ही उन्हें क़ायदे आज़म के स्थान पर क़ाफ़िरे आज़म बना दिया था। यहाँ से पाकिस्तान के लोकतंत्र की गाड़ी पटरी से उतर गई। फ़ौज शनैः शनैः निरंकुश होती गई और उसके अफसर अपने अपने धंधे करते रहे। छबि कुछ ऐसी बन गई कि कहा जाने लगा कि विश्व के देशों की हिफाज़त के लिए सेना होती है ,लेकिन एक सेना ऐसी है ,जिसके पास पाकिस्तान नामक देश है।यह फ़ौज ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो को प्रधानमंत्री भी बनवाती है और सरे आम फाँसी पर लटकाती है,बहुमत से चुनाव जीतने के बाद भी बंगबंधु शेख़ मुजीब उर रहमान को जेल में डाल सकती है और अपने पागलपन तथा वहशी रवैए से मुल्क़ के दो टुकड़े भी होने दे सकती है । बेनज़ीर भुट्टो की हत्या भी ऐसी साज़िश का ही परिणाम थी। कारगिल में घुसपैठ कराके अपनी किरकिरी कराने वाली भी यही फौज है। याने सेना को जम्हूरियत तभी तक अच्छी लगती है,जबकि हुक़्मरान उसकी जेब में रहें और उसके इशारों पर नाचते रहें । देश का पिछड़ापन और तमाम गंभीर मसले उसे परेशान नहीं करते।वह जानती है कि हज़ार साल तक साझा विरासत के साथ रहते आए लोग जब तक हिन्दुस्तान से नफ़रत करते रहेंगे,तब तक उसकी दुकान चलती रहेगी।इसलिए वह जब तब कोशिश करती रहती है कि अवाम के दिल में भारत के प्रति नफ़रत और घृणा बनी रहे। काफी हद तक उसके ऐसे प्रयास कारग़र भी रहे और मुल्क़ का एक वर्ग फ़ौज को अपना नायक मानता रहा।
अब अपने इसी नायक से आम नागरिक का मोहभंग हो रहा है।नागरिकों ने देख लिया है कि सेना उनकी समस्याओं का समाधान करने में नाक़ाम रही है। मंहगाई चरम पर है ,बेरोज़गारी बढ़ती जा रही है ,आतंकवादी वारदातें कम नहीं हो रही हैं,उद्योग धंधे चौपट हैं , विश्व में पाकिस्तान की किरकिरी हो रही है और देश दिवालिया होने के कग़ार पर है। शाहबाज़ शरीफ़ कल भी फ़ौज की कठपुतली थे ,आज भी हैं और कल भी रहेंगे।आज यदि सेना इमरान को प्रधानमंत्री बना दे तो वे फिर फ़ौज के गीत गाने लगेंगे और शाहबाज़ शरीफ़ को सेना गद्दी से उतार दे तो वे उसके ख़िलाफ़ धरने पर बैठ जाएँगे।
लब्बोलुआब यह कि हुक्मरानों और सेना से जनता त्रस्त है।
फ़ौज के ख़िलाफ़ आम नागरिक सड़कों पर उतर आएँ और फौजी अफसर उनका मुक़ाबला न कर पाएँ, यह सिर्फ़ एक बार हुआ है।उस समय जनरल अय्यूब ख़ान को राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ा ने सेना का मुखिया बनाया था। बीस दिन ही बीते थे कि अयूब ख़ान ने सैनिक विद्रोह के ज़रिए मिर्ज़ा को ही पद से हटा दिया। वे ग्यारह साल तक पाकिस्तान के सैनिक शासक रहे। इस दरम्यान अवाम कुशासन से त्रस्त हो गई।लोग सड़कों पर उतर आए । अयूब ख़ान के लिए देश चलाना कठिन हो गया। देश भर में अराजकता फ़ैल गई।जन जीवन अस्त व्यस्त हो गया और अयूब ख़ान को सत्ता छोड़नी पड़ी। उन दिनों सैनिक शासन से लोग दुःखी हो गए थे। पाकिस्तान के इतिहास में यह सबसे बड़ा जन आंदोलन था। अयूब ख़ान की फ़ौज कुछ नहीं कर पाई। अयूब ख़ान जब देश छोड़कर भागे,तो उत्तराधिकारी जनरल याह्या ख़ान को बना गए। इस प्रकार फिर फौजी हुकूमत देश में आ गई।उसके बाद यह दूसरा अवसर था,जब भारत का यह पड़ोसी लोकतंत्र के लिए सड़कों पर उतरा । जनता अब जम्हूरियत चाहती है। उधर फ़ौज अस्तित्व और साख़ बचाने के लिए लड़ रही है।राहत की बात है कि सुप्रीम कोर्ट नाजुक वक़्त पर मज़बूती दिखा रहा है। पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाली के लिए यह आवश्यक है। समूचा भारतीय उप महाद्वीप यही चाहता है कि शांति और स्थिरता के लिए पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाल हो। एक ऐसा लोकतंत्र ,जो अपने पैरों पर खड़ा हो सके और करोड़ों लोगों का भला हो सके।
लेकिन यह बूझना दिलचस्प होगा कि समय की स्लेट पर एक साथ अस्तित्व में आए दो जुड़वाँ राष्ट्रों की तक़दीर क्या इतनी अलग अलग हो सकती है ? आम तौर पर किसी भी राष्ट्र की सुरक्षा के लिए सेना होती है।भारत में भी ऐसा ही है।मगर,पाकिस्तान ऐसा मुल्क़ है,जहाँ सेना ने अपने लिए देश बनाया है।इस कारण देश की प्राथमिकताएँ कभी फ़ौज की अपनी प्राथमिकताएँ नहीं बनीं। जब भी समाज की ओर से प्रतिरोध किया गया ,तो सेना ने उन्हें मुल्क़ के लिए ख़तरा माना। फैज़ अहमद फैज़,अहमद फ़राज़, कुर्र तुल ऐन हैदर, जोश मलीहाबादी, मंटो,सज्जाद ज़हीर,साहिर लुधियानवी और हमीद अख़्तर ,तारेक फ़तेह जैसे अनगिनत सितारे पाकिस्तानी सैनिक तंत्र का निशाना बने हैं।सीमान्त गांधी ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान से लेकर शेख़ मुजीबुर्रहमान तक फ़ौजी शिकार हुए हैं। इनमें से अनेक तो भारत लौट आए और सम्मान से ज़िंदगी काटी। पाकिस्तानी फ़ौज के इस रवैये का कारण यही है कि अँगरेज़ी संस्कारों वाली साँवली फ़ौज ने कभी अपने को पाकिस्तानी नहीं माना ।जब मुल्क़ बना तो वह चंद मुठ्ठी भर भावुक लोगों का सपना था ,जो पाकिस्तान बनने के बाद बिखर गया। सेना इस नए नवेले देश पर बरतानवी हुक़ूमत की परंपरा क़ायम रखते हुए विदेशियों की तरह राज करती रही।इस संगठन ने तो इस्लामी संस्कार भी नहीं अपनाए। अँगरेज़ों की तर्ज़ पर फूट डालो - राज करो की शैली में उसने मुसलमानों को उपधर्मों और खण्डों में बाँट दिया।उनमें केवल शिया और सुन्नी का विभाजन ही नहीं रहा। वे पठान हो गए,बलूची हो गए,मुहाज़िर हो गए,अहमदिया हो गए ,बोहरा हो गए,सिंधी हो गए और पंजाबी हो गए।इन सभी उपधर्मों तथा अन्य अनुयाइयों ने पाकिस्तान को तो अपना लिया,लेकिन पाकिस्तान की सेना ने उनको नहीं अपनाया। ठीक वैसा ही,जैसे कि उसने बांग्लाभाषियों को नहीं मान्यता दी थी।सारे पाकिस्तान में आज भी सुन्नियों को छोड़कर बाक़ी मुसलमान दोयम बरताव के शिकार हो रहे हैं।
फ़ौज के इस चरित्र को दोहराने का मतलब यही है कि षड्यंत्रपूर्वक तोड़े गए इस सामाजिक तानेबाने का असर वहाँ के सियासी चरित्र पर भी पड़ा है ।पचहत्तर साल बाद भी पाकिस्तान की कोई अखिल राष्ट्रीय पार्टी नहीं उभर पाई है।भारत में तो फिर भी दो राष्ट्रीय पार्टियाँ -भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस आमने सामने होती हैं और क्षेत्रीय दल भी अनेक प्रदेशों में सत्ता में हैं।लेकिन,पाकिस्तान में ऐसा नहीं हैं।बिलावल भुट्टो की अगुआई वाली पाकिस्तान पीपल्स पार्टी सिंध के मतदाताओं की दया पर निर्भर है तो शरीफ़ बंधुओं की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग ( नवाज़ ) पंजाब के वोटरों के इर्द गिर्द घूमती है।पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान नियाज़ी की पाकिस्तान तहरीके इन्साफ पख्तूनिस्तान और आसपास के सीमान्त इलाक़ों में जनाधार वाली पार्टी है।अवामी नेशनल पार्टी ख़ैबर पख़्तूनख्वा भी क्षेत्रीय पार्टी है।मुत्ताहिदा क़ौमी मूवमेंट पाकिस्तान,जमाते इस्लामी,जमीयत ए उलेमा और बलूचिस्तान अवामी पार्टी जैसे कुछ सूबाई राजनीतिक दल भी चुनाव मैदान में हैं।लेकिन,उनका असर इतना कम है कि उनकी नुमाइंदगी बमुश्किल दहाई में पहुँच पाती है।दिखावे के राष्ट्रीय चरित्र वाली दो ख़ानदानों की पार्टियाँ ही मैदान में हैं। वे नवाज़ - शाहबाज़ शरीफ़ और भुट्टो ख़ानदानों की हैं।तीसरी तथाकथित राष्ट्रीय पार्टी इमरान ख़ान की है,जिसका चुनाव में वजूद ही मिटा दिया गया ।सेना अब इसीलिए इमरान को भी अपने दबाव में लाना चाहती है। वह चाहेगी कि पक्ष - विपक्ष सेना के ऑर्केस्ट्रा पर नाचते रहें । पाकिस्तान में यदि कोई राष्ट्रीय चरित्र वाली पार्टी है तो वह सेना है और दिलचस्प यह है कि उसका अपना कोई राष्ट्रीय चरित्र ही नहीं है।सेना कभी चुनाव मैदान में नहीं उतरती।उसकी शैली आज भी गोरी सत्ता की तरह बरक़रार है।वह केवल सियासी दलों को लड़वाने का काम करती है।अब वह अय्यूब ख़ान,याह्या ख़ान,जनरल ज़िया उल हक़ और परवेज़ मुशर्रफ़ की तरह सीधे मार्शल लॉ याने सैनिक शासन लगाकर बदनामी मोल नहीं लेती।वह एक तीर से कई निशाने करती है।शिखर स्तर पर सेना अमेरिका से आशीर्वाद लेती है और चुनी हुई सरकार चीन के गीत गाती है। इस तरह दोनों महाशक्तियों के साथ उसका संतुलन बना रहता है।