राजेश बादल
वे मुझसे आयु में साल भर छोटे थे ,लेकिन बड़े लगते थे।क़रीब पैंतीस बरस से हम अच्छे दोस्त थे। कुछ समय पहले ही उनका फोन आया था।मेरी मिस्टर मीडिया पुस्तक चाह रहे थे।मैंने कहा ,भेजता हूँ। अफ़सोस ! नहीं भेज पाया। अब भेजूँ तो कैसे ? अजय जी अपना पता ही नहीं दे गए। ऐसे चुपचाप अचानक चले जाएँगे - सोचा भी नहीं था। उमर भी नहीं थी। पर कोविड काल के बाद कुछ ऐसा हो गया है कि कब काल किसको झपट्टा मार कर उठा ले, कुछ कहा नहीं जा सकता। कल ही अख़बार में पढ़ा था कि पच्चीस - तीस साल का एक नौजवान हार्ट अटैक से चला गया। कतार में हम सब हैं।पता नहीं ,कोरोना हम सबके भीतर के तंत्र में क्या छेड़ छाड़ कर गया।
रमेश नैयर जी गए तो मैंने तय किया था कि अब किसी अपने पर नहीं लिखूँगा। एक के बाद एक जाते गए ,अपने को किसी तरह बांधता रहा.पर,अजय जी के जाने के बाद नहीं रोक पा रहा हूँ। हम जयपुर में मिले थे।वह 1988 या 89 का साल था। मैं नवभारत टाइम्स में मुख्य उप संपादक था। वे किसी काम से आए थे। राजेंद्र माथुर के प्रशंसक थे। लिहाज़ा हम एक ही पत्रकारिता परिवार के थे। पहली मुलाक़ात में ही उनकी विनम्रता, सहजता और शिष्टाचार भा गया। यह उनका ऐसा गुण था,जो नैसर्गिक था। मेरे लिए ताज्जुब था कि देश के जाने माने संस्थान एम ए सी टी भोपाल से इंजीनियरिंग करने के बाद वे कलम के खिलाड़ी बन गए। मैंने पूछा ," क्यों ? उत्तर में वे मुस्कुरा दिए ।जयपुर की सड़कों पर दिन भर हमने मटरगश्ती की।जब नवभारत टाइम्स में तालाबंदी हुई तो मेरा तबादला दिल्ली कर दिया गया। फिर हम मिलते रहे। लगातार। मैं मयूर विहार के नवभारत टाइम्स अपार्टमेंट में आदित्येन्द्र चतुर्वेदी के फ्लैट में रहता था।चतुर्वेदी जी बीकानेर हाउस के पीछे एक सरकारी घर में रहते थे। कभी वे मिलने आ जाते तो कभी मैं उनके घर चला जाता। कभी हम तीनों ही साथ भोजन करते थे। तभी हमारी दोस्ती गाढ़ी हुई। आठ अक्टूबर ,1991 को मैंने दैनिक नई दुनिया के समाचार संपादक पद से इस्तीफ़ा दे दिया था।शंकर गुहा नियोगी की हत्या के बाद मैंने जो लिखा था,उससे मैनेजमेंट दुखी था और सैद्धांतिक मतभेदों के चलते मैंने अख़बार छोड़ दिया था। यह तय किया था कि जीवन में कभी किसी अख़बार में पूर्णकालिक नौकरी नहीं करूँगा। मेरे इस फ़ैसले से अजय जी तनाव में थे। मेरी शादी के सिर्फ़ पाँच - छह बरस हुए थे। अजय जी की चिंता थी कि पत्रकार तो कुछ और कर ही नहीं सकता। एक फ्रीलांसर के रूप में गुज़ारा कैसे होगा ? उन्ही दिनों अम्बानी के अख़बार संडे आब्जर्वर के प्रकाशन की तैयारी चल रही थी। उदयन शर्मा संपादक थे। उनके सहयोगी रमेश नैयर और राजीव शुक्ल थे। अजय चौधरी और अजय उपाध्याय भी वहाँ थे। उदयन ,राजीव और अजय चौधरी पहले रविवार में भी रहे थे इसलिए हमारे अच्छे रिश्ते थे। इन सबने ख़ूब मनाया कि मैं ज्वाइन कर लूँ। मैं फैसले पर अडिग रहा।आख़िरकार तय हुआ कि हर सप्ताह स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर रिपोर्टिंग करता रहूँगा। उन दिनों रमेश नैयर और अजय उपाध्याय का मानवीय रूप नए ढंग से प्रकट हुआ। हफ़्ते में दो बार तो पूछ ही लेते कि घर चल रहा है न ? पैसे की ज़रूरत तो नहीं ? आज तो किसी से आप आशा ही नहीं कर सकते । मुझे ऐसे लोग मिलते रहे। इसलिए मैं भी अपनी ओर से ज़िंदगी भर मदद करता रहा। वह एक अलग दास्तान है। फिर 1995 में आज तक शुरू हुआ तो एस पी सिंह के साथ मैं भी उस टीम में था।नियति ने असमय एस पी को हमसे छीन लिया। कुछ बरस बाद अजय उपाध्याय भी विशेष संवाददाता के रूप में आज तक का हिस्सा बन गए।वे बीजेपी कवर करते थे।यह पारी लंबी नहीं चली। मगर, जल्द ही वे कार्यकारी संपादक के तौर पर आजतक में आ गए। कारोबारी विषयों पर उनकी महारथ थी।हमारी दोस्ती में कोई अंतर नहीं आया। इसके बाद उनकी अगली ख़ास पारी हिंदुस्तान के संपादक की रही। उन्होंने तब फिर एक बार मुझे हिंदुस्तान में सहायक संपादक का पद न्यौता। लेकिन मैंने उन्हें फिर याद दिलाया कि अख़बार में कोई पूर्णकालिक काम नहीं करने का प्रण ले रखा है । उन्हें याद था ,लेकिन बोले ," मैंने सोचा अब शायद मन बदल गया हो। मैनें उनका आभार माना।
अनगिनत यादें हैं। अजय जी जैसे लोग पत्रकारिता में अब दुर्लभ हैं। उनकी विनम्रता ,ईमानदारी और शिष्टाचार उनके भीतर के इंसान को महान बनाता था। क्या कहूँ अजय जी ? ज़िंदगी भर आप ईमानदार रहे। आख़िर में बेईमानी करके चले गए। अच्छा नहीं किया। आपसे उमर भर दोस्ती निभाई। अब आकर लड़ूँगा।