राकेश दुबे
देश में मीडिया की आज़ादी को लेकर बड़े सवाल खड़े हुए हैं। बानगी न्यूजक्लिक से जुड़े पत्रकारों के कार्यालयीन दस्तावेज, लैपटॉप और मोबाइल फोन जब्त करना है । उक्त संस्थान के संस्थापक एवं प्रधान संपादक प्रवीर पुरकायस्थ तथा मानव संसाधन विभाग के प्रमुख अमित चक्रवर्ती को बिना प्रथम सूचना रिपोर्ट की प्रति दिए बंदी बनाकर कानून प्रवर्तन एजेंसियों ने स्वतंत्र मीडिया को लेकर सरकार का रुख ही साफ किया है।
सामान्य सी बात है कि अगर न्यूजक्लिक ने निवेश तथा अन्य कानूनों का उल्लंघन किया है तो उसकी जांच होनी चाहिए। दूसरा प्रश्न यह है कि क्या सरकार ने इस दौरान उचित प्रक्रियाओं का पालन किया? हकीकत में कुछ आरोप नए नहीं हैं। इस समाचार वेबसाइट के प्रवर्तकों के खिलाफ विदेशी निवेशकों से मिलने वाले फंड के स्रोत तथा धनशोधन के मामलों की जांच 2020 से चल रही है। यह जांच दिल्ली पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा तथा प्रवर्तन निदेशालय कर रहे हैं।
जो आरोप अब लगे हैं उनमें मीडिया में 26 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा से बचने के लिए शेयरों को अधिक मूल्यांकन पर विदेशी फंड को बेचना और फंड की हेरफेर के आरोप शामिल हैं। साथ ही यह पहला मौका नहीं है जब न्यूजक्लिक पर चीन से जुड़ी कंपनियों से फंड स्वीकार करने का आरोप लगा हो। प्रवर्तन निदेशालय ने फरवरी 2021 में भी न्यूजक्लिक के परिसर पर छापा मारा था। उस समय आरोप था कि वह ऐसी अमेरिकी कंपनियों से फंड ले रही है जिनका संबंध चीन से है।गत अगस्त में न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित एक आलेख में कहा गया था कि यह वेबसाइट उन कंपनियों में से एक है जिन्हें भारतीय मूल के एक ऐसे अमेरिकी करोड़पति से पैसा मिलता है जो चीन के प्रोपगंडा नेटवर्क को फंड करता है। उसके बाद ही यूएपीए के तहत कार्रवाई की गई।
यह बात ध्यान देने लायक है कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने जून 2021 और अगस्त 2023 के बीच कई बार हस्तक्षेप किया और पुरकायस्थ तथा उनके साथियों को बलपूर्वक की जाने वाली कार्रवाई से बचाया। अगस्त में प्रवर्तन निदेशालय तथा दिल्ली पुलिस ने पुरकायस्थ को गिरफ्तारी से मिली अंतरिम राहत खत्म करवानी चाही थी। ये सुनवाइयां 9 से 11 अक्टूबर के बीच होनी थीं।
यूएपीए में जमानत की शर्तें बहुत सख्त हैं और इसके तहत गिरफ्तारी और पूछताछ ने समुचित प्रक्रिया को बाधित किया है। जब केंद्र की दो प्रमुख प्रवर्तन एजेंसियां पहले ही काम कर रही थीं तो ऐसे में यह कदम थोड़ा अतिरंजित नजर आता है। यह स्पष्ट नहीं है कि यह समाचार वेबसाइट और इससे जुड़े लोग किन आतंकी गतिविधियों में शामिल थे।
आम राय है कि दिल्ली पुलिस जिस तरह पूछताछ करती है उसे ध्यान में रखते हुए इस सप्ताह उठाए गए कदमों की प्रकृति को लेकर संदेह पैदा हो गया है। वेबसाइट से जुड़े पत्रकारों से पूछा गया कि क्या वे नागरिकता संशोधन अधिनियम, दिल्ली दंगों और किसानों के प्रदर्शन से संबंधित रैलियों में शामिल हुए या उनके बारे में रिपोर्टिंग की।
ये अजीब सवाल हैं क्योंकि ऐसी अहम घटनाओं की रिपोर्टिंग करना तो राष्ट्रीय राजधानी में काम कर रहे किसी भी पत्रकार के लिए लाजिमी है। साथ ही इनमें से किसी भी आंदोलन को कभी चीन से नहीं जोड़ा गया। इन ताजा कदमों के बाद इस निष्कर्ष से बचना मुश्किल है कि सरकार अपनी पूरी क्षमता लगाकर आलोचकों को चुप कराने का प्रयास कर रही है।