अजय बोकिल
आज से 43 साल पहले भारतीय सिने संगीत के अमर गायक मोहम्मद रफी की आवाज भौतिक रूप से भले खामोश हो गई हो, लेकिन रूहानी तौर पर वो हर दिल जवां स्वर आज भी उतना ही खरा और प्रासंगिक है। वो रफी , जो कभी इस युवा और स्वतंत्र भारत राष्ट्र का स्वर बन गए थे। समीक्षको ने उन्हें भारतीय सिने संगीत का ‘तानसेन’ कहा। उन्हीं रफी साहब का जन्म शताब्दी वर्ष इसी साल 24 दिसंबर से प्रारंभ हो रहा है। उनकी जन्म शती पर सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि राष्ट्रप्रेम की दुहाई देने वाला यह देश रफी साहब को मरणोपरांत ही सही, भारत रत्न देने की घोषणा करे। इसके पहले देश ने गान सरस्वती लता मंगेशकर को इस सर्वोच्च सम्मान से नवाजा था। सिने संगीत के पुरूष स्वरों में इसके पहले हकदार निर्विवाद रूप से मोहम्मद रफी हैं।
कोई माने न माने, लेकिन रफी साहब की अलौकिक आवाज में न सिर्फ युवा भारत बल्कि समूचे भारत राष्ट्र की आवाज प्रतिध्वनित होती है। कोई राष्ट्रीय पर्व या समारोह ऐसा नहीं है, जब मोहम्मद रफी के गाए देशभक्तिपूर्ण तरानों के पूरी होती हो। इस मामले में रफी सदियों तक याद किए जाते रहेंगे। मोहम्मद रफी की आवाज में अदम्य जोश, राष्ट्र के प्रति समर्पण भाव और वतन पर सब कुछ न्यौछावर कर देने का जो जज्बा दिखाई देता है, वैसा किसी दूसरे गायक में कम ही दिखाई पड़ता है। यही कारण है कि देशभक्ति भरे अधिकांश गानों में रफी की आवाज ही पहली प्राथमिकता थी। हालांकि उन्हीं की गायन शैली वाले महेन्द्र कपूर भी कतार में आगे हैं, लेकिन रफी साहब की बात ही कुछ और है।
लगभग एक सदी के भारतीय सिने संगीत इतिहास में दो ही ऐसे महानतम स्वर हैं, जिनके गायन में भारत की आत्मा प्रतिबिंबित होती है। पहला, स्त्री स्वर में कोकिल कंठी लता मंगेशकर और दूसरा, पुरूष स्वर में महान और हरफनमौला गायक मोहम्मद रफी। अगर लताजी के स्वर में भारत माता स्वयं गाती है तो रफी साहब के सुरों में भारत का राष्ट्र का पौरूष गाता है।
याद करें कि रफी साहब के गाए कितने ही गीत हैं, जो हर राष्ट्रीय त्यौहार को हर साल उस ऊर्जा से भर देते हैं, जो हमे अपने शाश्वत देशभक्ति भाव से रूबरू कराते हैं। उसमें एक नई ऊर्जा का संचार करते हैं। अगर आंकड़ों पर ही जाएं तो बोलती फिल्मों के 90 सालों के इतिहास में जितने भी देशभक्ति गीत बने हैं, उनमें से सर्वाधिक 19 गीत रफी साहब ने गाए हैं। ये सभी कालजयी गीत हैं। राजनीतिक आग्रहों-दुराग्रहो से परे हैं और मातृभूमि के प्रति ऋणी एक आम भारतीय के ह्रदय से फूटने वाले गीत हैं। ये गीत उस जज्बे से भरे हैं, जो कभी खत्म नहीं होगा।
फिल्मी देशभक्ति गीतों के इतिहास पर नजर डालें तो ऐसे सबसे ज्यादा गीत रचे और गाए उस दौरान गए, जब 1962 में भारत पर चीन ने धोखे से हमला किया और पहली बार भारतीय सेना को शर्मनाक पराजय का मुंह देखना पड़ा। इस पराजय से समूचे देश में किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति थी। क्या से क्या हो गया, वाला भाव था। विश्व शांति की बातें करते-करते हमने अपनी ही पीठ पर खंजर घोंपा हुआ देखा। इस कसमसाहट और महज डेढ़ सदी पहले आजाद देश की अस्मिता को फिर से जगाने की चाहत की रचनात्मक अनुगूंज सिने जगत में भी हुई। लगा कि देश में आजादी के संघर्ष का वो जज्बा फिर से जगाने की जरूरत है, जिसे हमने 1947 के बाद एक रूमानी सपने में बदलने की कोशिश की थी। यही कारण है कि बाॅलीवुड में अब तक रचे गए देशभक्तिपूर्ण गीतों का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा सन 1962 से 1965 के बीच रचा और गाया गया। इनमें से अधिकांश को स्वर रफी साहब ने ही दिया था। यह कहना गलत नहीं होगा कि राष्ट्रभक्ति से अोत प्रोत इन गीतों ने उस वक्त देश और समाज में वही आत्मविश्वास जगाने की सफल कोशिश की, जो कभी मुगल काल के दौरान भक्ति कालीन कवियों ने की थी। जरा लिस्ट उठाएं तो फिल्म ‘लीडर’ (1964) का अमर गीत ‘अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं...सर कटा सकते हैं, लेकिन सर झुका नहीं’, ‘कर चले हम फिदा,जान अो तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो फिल्म’ ‘हकीकत’( 1964)। ‘जहां डाल डाल पर सोने की चिडि़या करती हैं बसेरा, वो भारत देश है मेरा’ फिल्म ‘सिकंदर ए आजम’ (1965)। ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ फिल्म ‘शहीद’ (1965)। इसी फिल्म का रफी साहब के साथ अन्य गायकों द्वारा गाया गीत ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ और ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं’, आज भी लाजवाब है। भारत-चीन युद्ध के बाद देश में उपजे मानसिक हताशा और आक्रोश के मद्देनजर बाॅलीवुड ने एक ‘नेशनल डिफेंस कमेटी’ किया था। इस कमेटी के तत्वावधान में रफी साहब और साथियों की आवाज में दो यादगार गैर फिल्मी गीत रिकाॅर्ड हुए थे। जिन्हें लिखा जावेद अख्तर के पिता स्व.जां निसार अख्तर ने और संगीत महान संगीतकार खय्याम ने दिया था। उस जमाने में यह संगीतमय डाॅक्युमेंट्री देश के सभी सिनेमाघरों में दिखाई जाती थी। रफी साहब की आवाज में ये दो गीत थे- ‘आवाज दो हम एक हैं...तथा वतन की आबरू खतरे में है तैयार हो जाओ...।‘ इसमें भी ‘आवाज दो हम एक हैं’ तो एक तरह से मार्चिंग साॅग जैसा है। सुनते ही हर युवा की भुजाएं फड़कने लगें। इन गीतों का परोक्ष असर ही कहें कि तीन साल बाद 1965 में जब पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया तो भारतीय सेना ने उस युद्ध में विजय प्राप्त की। इसकी पराकाष्ठा 1971 के उस ऐतिहासिक युद्ध में हुई, जिसमें भारत ने न सिर्फ पाकिस्तान पर निर्णायक जीत हासिल की बल्कि धर्माधारित राज्य की अवधारणा के भी दो टुकड़े कर दिए। एक नया राष्ट्र जन्मा ‘बंगला देश।‘
वैसे भारत में देशभक्ति गीतों आगाज 1857 में अजीमुल्लाह खान द्वारा लिखे उस गीत से माना जाता है, जो उन्होंने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय लिखा था। ‘पयाम ए आजादी’ नामक इस गीत थे ‘हम हैं इसके मालिक,हिंदोस्ता हमारा।‘ अजी़मुल्लाह खुद स्वतंत्रता सेनानी थे और अंतिम पेशवा नाना साहब द्वितीय के दीवान थे। वो अंग्रेजी, उर्दू और फारसी भाषा के ज्ञाता थे। नाना साहब पेशवा 1857 के अग्रणी नायकों में थे। अजीमुल्लाह खान का निधन स्वतंत्रता की पहली क्रांित के विफल हो जाने के 1 साल बाद 1959 में हो गया था। बाद में यह धारा और आगे बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास ‘आनंदमठ’ के प्रयाण गीत ‘वंदे मातरम्’ से और आगे बढ़ी। फिर आज का राष्ट्रगान और झंडा गीत आया। उधर
सिने संगीत में देशभक्ति भरे गीतों की शुरूआत तो आजादी से पहले ही हो गई थी, लेकिन उसे सही स्वरूप स्वतंत्रता के बाद ही मिला। जब राष्ट्र प्रेम की अभिव्यक्ति पर कहीं कोई प्रतिबंध नहीं रहा। आजादी के बाद रचे गए इन गीतों पर दोहरी जिम्मेदारी थी। एक तो स्वतंत्रता संग्राम में अर्जित देशप्रेम के भाव को न केवल कायम रखना बल्कि उसका राष्ट्र कल्याण के लिए निवेश करना। दूसरा दायित्व यह था कि जो आजादी हमने बड़ी मेहनत और कुर्बानियों से पाई थी, उसका हर हाल में जतन करना। नई पीढ़ी को इस बात की याद दिलाते रहना कि स्वतंत्रता सेत मेंत में नहीं मिली है। इसके लिए हमारे पूर्वजो ने खून पसीना बहाया है। यह अनमोल है। ये दोनो भाव आज भी कुछ परिवर्तित रूप में ही आज भी प्रासंगिक और अपेक्षित हैं। लक्ष्य कुछ बदल गए है। यानी आजादी का जतन ही नहीं करना है, आजाद भारत को नई वैश्विक बुलंदियों पर पहुंचाना है।
स्वतंत्र भारत में राष्ट्रप्रेम की ऐसी सांगीतिक शुरूआत 1948 में आई फिल्म शहीद’ के उस गाने से होती है, जिसमें मोहम्मद रफी ने गाया था ‘वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हों..। उसके बाद एक यादगार फिल्म ‘जागृति’ (1954) में मोहम्मद रफी का गाया - ‘ हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के’ तो एक ऐसा शाश्वत गीत है जो हर गुजरती पीढ़ी नई पीढ़ी के लिए गा सकती है। गाना चाहिए। 1957 में आई क्लासिक फिल्म ‘नया दौर’ में मोहम्मद रफी के गाए-‘ ये देश है वीर जवानों का ‘ पर थिरके बिना कोई राष्ट्रीय पर्व तो क्या बारात धर्म भी पूरा नहीं होता। इसके बाद एक और सोद्देश्य फिल्म ‘धूल का फूल’1959 में आई। इसमें रफी का गाया एक गीत है- ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा।‘ यह गीत मनुष्यता की सर्वोच्चता स्थापित करने वाला अमर गीत है।
यूं बाॅलीवुड में देशभक्तिपूर्ण गीतों का सिलसिला 1971 के बाद भी चला है, लेकिन अभिव्यक्ति और सृजनात्मकता के स्तर पर उनमें वो पीड़ा, वो संघर्ष का जज्बा और मर मिटने का पहले जैसा भाव नजर नहीं आता। मसलन रफी साहब की आवाज में ही ‘मेरे देश में पवन चली पुरवाई फिल्म ‘जिगरी दोस्त।‘(1969) ताकत वतन की हमसे है’ फिल्म ‘प्रेम पुजारी (1970)। वर्दी है भगवान, फौजी मेरा नाम’, फिल्म फौजी (1976) और ‘चना जोर गरम’ फिल्म क्रांति (1981)। 1980 में रफी साहब का निधन हो गया था।
मोहम्मद रफी के कला अवदान का आकाश बहुत विराट है। वो नवरसों को पूरी शिद्दत से अपने सुरों में अभिव्यक्त करने वाले महान गायक थे। फिर चाहे वो प्रेम गीत हो, भजन हों, नात हो कव्वाली हो, शांत रस और रौद्र रस से भरे गीत हों या हास्य रस से भरे गीत हों। शुद्ध शास्त्रीय गीत हो या पश्चिमी धुनो पर आधारित गीत हों, लोक संगीत से सजे गीत हो या फिर सितारो की ऊंचाई से स्पर्द्धा करते गीत हों, मोहम्मद रफी का कहीं कोई मुकाबला नहीं है।
न सिर्फ महान गायक बल्कि एक महान इंसान के रूप में भी लोग मोहम्मद रफी को शिद्दत से याद करते हैं। अपनी कला की बदौलत मिली शोहरत, इज्जत और पैसे को वो केवल ईश्वर की कृपा मानते थे। घमंड उन्हें छू भी नहीं गया था। गायकों को राॅयल्टी देने को लेकर लताजी से जो मतभेद उनके हुए थे, वो सैद्धांतिक थे। देश प्रेम रफी के लिए सबसे ऊपर रहा। कम ही लोग जानते हैं कि उनकी दो शादियां हुई थीं। उनकी पहली पत्नी का नाम बशीरा बानो था। लेकिन 1947 में देश के बंटवारे के बाद बशीरा ने भारत आने से इंकार कर दिया। लेकिन रफी साहब ने नवोदित पाकिस्तान जाने से इंकार कर िदया। जबकि उस दौर में कई नामी मुस्लिम कलाकार बेहतर भविष्य की आस में पाकिस्तान चले गए थे। उनमें से ज्यादातर गुमनामी में खो गए। यह भारत का ही सौभाग्य था कि रफी के रूप में राष्ट्रप्रेम के सप्तस्वर इसी देश में रहे और फले फूले। रफी साहब की दूसरी शादी बिल्किस बानो से हुई।
लेकिन रफी साहब ने अपने बच्चों को संगीत के क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ाया। इस बारे में रोचक किस्सा है कि रफी साहब के दो बेटों में गायन की प्रतिभा थी। जिनके साथ बैठकर रफी कई बार रियाज किया करते थे। जब एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि फिल्म इंडस्ट्री में जब सभी अपने बेटो बेटियों को प्रमोट करते हैं तो आपने भी यह काम क्यों नहीं किया? क्योंकि बड़े होने पर उनकी तुलना में मेरे से होती और वो इसमें असफल रहते तो फ्रस्ट्रेशन का शिकार होते- रफी साहब का जवाब था।
यह अफसोस की बात है कि देशभक्ति गीतों के लिए भी हम आज भी अपने अतीत पर ही निर्भर हैं। हाल के वर्षों में जो भी देशभक्ति गीत बने हैं, वो भी ‘मेड इंड इंडिया’ या फिर ‘आई लव माई इंडिया’ टाइप के हैं। विडंबना ये कि फिल्मी गीतों का यह इंडिया, अब राजनीतिक नारे में तब्दील हो चुका है। जिसकी मोहम्मद रफी जैसे कलाकार को कभी जरूरत नहीं पड़ी।
रफी साहब का हिंदी फिल्मी गीतों का सफर 1945 में गाए पहले गीत ‘ ऐ दिल हो काबू में’ (फिल्म ‘गांव की गोरी’) से हुआ। उसके बाद उन्होंने मुड़कर नहीं देखा। आरंभ में रफी स्वयं उस जमाने के महान गायक अभिनेता के.एल.सहगल को अपना आदर्श मानते थे। लेकिन जल्द ही रफी की अपनी गायकी खिली और सिने संगीत में गायकी का रफी स्कूल ही बन गया, जिसे आज भी कई लोग फाॅलो करते हैं। देशभक्ति गीतों से हटकर रफी द्वारा 1961 में ( फिल्म ‘ससुराल’) गाया गया ‘बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है’ तो ऐसा अमर विवाह गीत है, जिसके बिना उत्तर भारत पश्चिमी में कोई शादी पूरी नहीं होती।
गायक मोहम्मद रफी की याद में देश में कई संग्रहालय बने हैं। देश के कानून राज्य मंत्री अर्जुनराम मेघवाल ने पिछले साल पंजाब में अमृतसर के पास मोहम्मद रफी के पैतृक गांव कोटला सुल्तान सिंह में रफी साहब की याद में संग्रहालय स्थापित करने की घोषणा की थी। निजी तौर पर ऐसा संग्रहालय रफी साहब के बेटे सबसे छोटे बेटे शाहिद रफी ने अपने निवास मुंबई में स्थापित किया है। इसका नाम मोहम्मद रफी अकादमी है। शाहिद ने अपने मरहूम पिता मोहम्मद रफी पर एक किताब ‘मोहम्मद रफी वायस आॅफ नेशन’ भी लिखी है। शाहिद रफी के पुत्र फुजैल रफी ने अपने दादा की याद में अनूठा ‘वर्चुअल 3 डी रूमऐ के रूप में स्थापित किया है। उनकी याद में एक संग्रहालय केरल के कोजीकोड में मोहम्मद रफी फाउंडेशन स्थापित किया है। निजी तौर पर दिल्ली में अरूण गौतम और भोपाल में रफी की आवाज के दीवाने मंसूर अहमद फारूकी का भी रफी के रिकाॅर्डों का अनूठा संग्रहालय है।
मोहम्मद रफी जितने बड़े गायक थे, उस तुलना में सरकार ने उन्हें वैसे सम्मानों से नहीं नवाजा, जिसके वो सही मायनों में हकदार थे। रफी साहब जनता के दिलों पर राज करने वाले कलाकार रहे। उन्हें भारत रत्न जैसा सबसे बड़ा अवाॅर्ड बहुत पहले ही मिल जाना चाहिए था। लेकिन इसके लिए कभी किसी ने राजनीतिक लाॅबिंग नहीं की। अकेले रामविलास पासवान ऐसे नेता थे, जिन्होंने सार्वजनिक रूप से मोहम्मद रफी को भारत रत्न देने की मांग की थी। हालांकि उन्हें 1967 में पद्मश्री सम्मान और 6 बार फिल्म फेयर अवाॅर्ड सहित कई पुरस्कार मिले। लेकिन रफी साहब का अवदान इससे कहीं बहुत ज्यादा है। समय इस बात का गवाह है कि आज 43 बरस बाद भी वो रूहानी आवाज हरदम हमारे साथ है। हर दुख में हर सुख में।
जिस दौर में रफी की प्रतिभा परवान चढ़ी, वह हिंदी सिने संगीत का सुनहरा दौर था। उम्र के महज 55 वे साल में इस महान कलाकार ने ह्रदयाघात के कारण हमेशा की लिए आंखें मूंद लीं। लेकिन उनकी आवाज आज भी उसी तरह अंतरिक्ष में उसी तरह से तैरती है। खुद लताजी ने अपने समकालीन मोहम्मद रफी को श्रद्धांजलि देते हुए कहा था- ‘रफी भैया न केवल भारत के महानतम पार्श्वगायक थे बल्कि वो लाजवाब इंसान भी थे। उनकी आवाज की रेंज उनके समय के किसी दूसरे गायकों से बढ़कर थी, फिर चाहे वो मैं हूं, आशा हो मन्ना दा हो या फिर किशोर भैया "