राजेश बादल
भोपाल की गैस त्रासदी मानवता के प्रति संसार में सबसे भयानक और क्रूर अपराध है। चार दशक बाद भी इस हादसे के चलते फिरते प्रेत - संस्करण भोपाल में हज़ारों बाशिंदों के रूप में देखे जा सकते हैं।मुझे नहीं याद आता कि दूसरे विश्वयुद्ध के दरम्यान हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु हमले के बाद सामान्य स्थिति में हज़ारों ज़िंदगियों को बरबाद करने वाला कोई और अमानवीय अपराध किसी मुल्क़ में हुआ हो। यूनियन कार्बाइड की लापरवाही अथवा शोध - साज़िश का घातक ज़हर कई पीढ़ियों की देह में आज भी अपने विकराल रूप में दौड़ रहा है और हम तथाकथित सभ्य समाज के लोग इसे नपुंसक आक्रोश के साथ स्वीकार करने पर विवश हैं।
जब यूनियन कार्बाइड भोपाल की हज़ारों ज़िंदगियों को निगल रही थी तो मैं भी अपने समाचार पत्र के लिए रिपोर्टिंग करने यहाँ की गलियों में कई दिन भटकता रहा था।रोज़ दारुण और लोमहर्षक ज़हरीली कथाएँ हमारे सामने आतीं थीं,जिन्हें लिखते हुए भी हाथ काँपा करते थे। प्रतिदिन हम यही सोचते कि नियति कभी किसी पत्रकार को ऐसा कवरेज करने का दिन न दिखाए । पर ,सब कुछ अपने चाहने से नहीं होता। क़रीब क़रीब आधी सदी की पत्रकारिता में मैंने ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं देखा कि मानवता को कलंकित करने वाले अपराधी बेख़ौफ़ घूमते रहें और पीड़ित छले जाते रहें। षड्यंत्र तो यह है कि चालीस बरसx बाद भी हमारे बीच इस वीभत्स अपराध का सिलसिलेवार और प्रामाणिक दस्तावेज़ीकरण नहीं था।अधिवक्ता श्री विभूति झा इस मायने में वाकई साधुवाद के सच्चे हक़दार हैं। उनकी अनेक वर्षों की मेहनत का परिणाम हमारे सामने : कठघरे में साँसें - भोपाल गैस त्रासदी के चालीस बरस - की शक़्ल में हमारे सामने है।
भारतीय प्राचीन इतिहास में ज्ञान की वाचिक परंपरा यक़ीनन समृद्ध थी और सदियों तक यह पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होती रही। लेकिन,मौजूदा दौर इस परंपरा को आगे बढ़ाने की अनुमति नहीं देता। यह समझते हुए भी हम भारत के लोग कालखंड को प्रभावित करने वाली ऐसी असाधारण घटनाओं का कोई प्रामाणिक संस्करण अपने शब्द - संसार में नहीं रख पाते । यही कारण है कि हमारी ग़ुलामी और उससे मुक्त होने के लिए पूर्वजों के संघर्ष तथा योगदान के अनेक अध्याय अभी भी हमारे पास नही हैं। कहते हैं कि एक बुजुर्ग जब इस दुनिया से जाता है तो वह एक अनमोल सन्दर्भशाला को भी ले जाता है। हम देखते हैं कि भारत में हमारे बीच से एक के बाद एक पूर्वज जा रहे हैं और हम उनके अनुभवों को पंजीकृत नहीं कर पा रहे हैं। दूसरी ओर संसार के तमाम देशों ने अपने अतीत की हर छोटी - बड़ी घटना को सहेजने का काम किया है,जिससे आने वाली नस्लें सबक़ लें और पिछली ग़लतियों को न दोहराएँ। इसके मद्देनज़र जाने माने अधिवक्ता श्री विभूति झा की यह पुस्तक अतीत के इस कड़वे प्रसंग का बेहद प्रासंगिक और प्रामाणिक ब्यौरा प्रस्तुत करती है। श्री झा ने विश्व इतिहास की इस तक़लीफ़देह दास्तान को अपनी कलम से सिर्फ़ लेखक के रूप में ही नहीं दर्ज़ किया ,बल्कि भुग्तभोगी के रूप में अपनी संवेदनाओं के सारे सूत्र व्यवस्थित ढंग से पाठकों के समक्ष रखे हैं।वे गैस पीड़ितों के हक़ के लिए छटपटाते प्रतिनिधि के रूप में नज़र आते हैं तो एक बेजोड़ अधिवक्ता के रूप में न्याय के लिए लड़ते भी दिखाई देते हैं। चरण दर चरण इस क़ानूनी संघर्ष में व्यवस्था तथा हुक़ूमत के रवैए पर उनकी हताशा सामने आती है तो भी सीमित संसाधनों के बावजूद वे पीड़ितों की राष्ट्रीय स्तर पर आला अदालत के सामने पैरवी करते हैं।वे स्वयंसेवी संगठनों का स्वर मुखरित करते हैं। यहाँ तक कि आपसी मतभेदों को भी पूरी ईमानदारी से पाठकों के सामने प्रस्तुत करते हैं। इतिहास रचने और लिखने के लिए यही सबसे बड़ी ज़रुरत है। वरना भारत में तो इतिहास लेखकों ने अतिरंजित उपमाओं और विश्लेषणों से इकतरफ़ा लेखन भी कम नहीं किया है। मैं कह सकता हूँ कि इस मामले में श्री विभूति झा ने सच्चे और पेशेवर अंदाज़ में चालीस साल का लेखा जोखा पेश कर दिया है। अभी तक किसी भारतीय लेखक ने हिंदी में इस त्रासदी के बारे में पूरे समर्पण के साथ तथ्यों को नहीं रखा है।
मैं यह भी रेखांकित करना चाहता हूँ कि यह पुस्तक,पाठक की जिज्ञासा शांत करने का प्रयास करती दिखाई देती है। यह आपको अंदर तक झकझोरती है और ख़ून में हरारत पैदा करती है।एक ज़िंदा और धड़कते हुए समाज और लोकतंत्र का यही सुबूत है कि वह आइंदा ऐसे अपराधों के प्रति सजग और जागरूक रहे। पढ़ने वाले की ज़बान से यह किताब केवल जागते रहो का नारा ही नहीं लगाती,अपितु वह एक प्रतिरोध की संस्कृति का एक नया अंदाज़ भी हमें बताती है। मैं दावा कर सकता हूँ कि श्री विभूति झा अपनी बात को सलीक़े से रखने में कामयाब हुए हैं।
मैं इसे गैस हादसे पर समग्र पुस्तकx नहीं मानता। श्री झा के पास इस हादसे की अथाह जानकारी है। भारत की विधि संस्थाएँ ,पाठ्यक्रम संचालक , औद्योगिक परिदृश्य को प्रभावित करने वाले प्रतिष्ठान ,पत्रकार ,संपादक और केंद्र तथा राज्य सरकारें ऐसे लेखन को प्रोत्साहित करेंगीं तो निश्चित रूप से भविष्य के लिए प्रामाणिक पुस्तक श्रृंखला का प्रकाशन हो सकता है ।विश्व की मानव जनित इतनी बड़ी विभीषिका के बारे में हमें और अधिक क्यों नहीं जानना चाहिए ? मैं अपने किस्म की इस पहली पुस्तक के लिए श्री विभूति झा को मुबारक़बाद देना चाहूँगा।लेकिन दो शख़्सियतों को सलाम किए बिना यह पुस्तक पूरी नहीं हो सकती। एक तो भोपाल में आधी शताब्दी से भी अधिक समय से काम कर रहे वरिष्ठ छायाकार आर सी साहू ,जिन्होंने इस किताब के लिए 1984 के इस भयानक हादसे की दुर्लभ तस्वीरों का अपना ख़ज़ाना खोल दिया। उन्होंने तत्परता से हमें चित्रों के निगेटिव उपलब्ध कराए। मुझे उनका यक़ीनन सलाम करना चाहिए। दूसरे विलक्षण पुरुष श्री जगदीश कौशल हैं । कौशल जी इसा समय 92 बरस के हैं और 80 साल से भी अधिक समय से फ़ोटोग्राफ़ी कर रहे हैं। वे सदी के सुबूत की तरह हमारे बीच मौजूद हैं। चित्रों से खेलना उनका नशा है। जब साहू जी ने निगेटिव उपलब्ध कराए,तो हमारी मुश्किल यह थी कि इन निगेटिव से चित्र कैसे तैयार किए जाएँ ? दरअसल इन निगेटिव से चित्र तैयार करने की पुरानी तकनीक अब विलुप्त हो चुकी है। डार्करूम,रासायनिक घोल और उनके उपयोग से फोटो बनाना अत्यंत जटिल प्रक्रिया थी ,जो आज के युग में काम नहीं आती। अब तो डिज़िटल तकनीक से पलक झपकते फोटो मिल जाता है। इसलिए भोपाल में अनेक स्थानों पर भटकने के बाद भी हमें निगेटिव से चित्र तैयार करने वाला कोई नहीं मिला। अंततः श्री कौशल जी ने चुनौती स्वीकार की। वैसे तो वे लंबे समय से अपने घर में बनाए गए स्कैनर से प्रिंट तैयार करने का काम कर रहे हैं। पर इस काम में अनेक कठिनाइयाँ थीं . कौशल जी ने रात दिन एक करके इन निगेटिव से फोटो बनाए और किताब में चार चाँद लगाए हैं। मैं उनका ह्रदय से आभार प्रकट करना चाहता हूँ।
पुस्तक के प्रकाशन में सुश्री वन्या झा की भूमिका को भी सलाम करना चाहता हूँ। उन्होंने दिन रात मेहनत करके इस किताब को हम तक पहुँचाने की महत्वपूर्ण कड़ी का काम किया है।