राजेश बादल
समीकरण बदल रहे हैं । रूस और यूक्रेन के बीच जंग अपने आख़िरी और खतरनाक मोड़ पर पहुँच रही है और दोनों राष्ट्रों से मिल रही ख़बरें भी चिंता जगाती हैं। परदेसी मदद से लड़ रहे यूक्रेन के तेवर बेहद आक्रामक हो गए हैं। दूसरी ओर रूस भी बौखलाया हुआ है।अब वह अपने सर्वाधिक घातक हथियारों का उपयोग करने जा रहा है।असल में यह लड़ाई अब इस स्थिति में पहुँच गई है ,जब विश्व बिरादरी का दख़ल अनिवार्य हो गया है। दोनों राष्ट्र अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने की स्थिति में आ चुके हैं । लेकिन जंग की ख़बरों के बीच राहत पहुंचाने वाले कुछ संकेत भी इस सप्ताह मिले हैं। अगस्त के पहले सप्ताह में सऊदी अरब की पहल पर एक शान्तिवार्ता होने जा रही है।इसमें तीस देश हिस्सा लेने जा रहे हैं। भारत भी इनमें से एक है। हम आशा कर सकते हैं कि इस बैठक से युद्ध की समाप्ति का फार्मूला निकल आएगा ।
वैसे तो दोनों मुल्कों के बीच सऊदी अरब की सुलह कोशिशें लंबे समय से चल रही हैं। उसके साथ यूक्रेन भी अपने को सहज पाता है और रूस भी।हालाँकि जेद्दाह में होने वाले इस शिखर सम्मेलन में रूस हिस्सा नहीं ले रहा है । वह सऊदी अरब पर इतना भरोसा कर सकता है कि उसके हितों की हिफाज़त हो जाए । तेल उत्पादन के क्षेत्र में दोनों देश अभी भी मिलकर काम कर रहे हैं। अमेरिका, सऊदी अरब तथा रूस की तेल - दोस्ती पर कई बार आपत्ति जता चुका है। दूसरी तरफ यूक्रेन और सऊदी के बीच भी भरोसे की मज़बूत दीवार है। सऊदी अरब ने इसी साल यूक्रेन को चार सौ मिलियन डॉलर की मदद भी पहुंचाई है।वह संयुक्त राष्ट्र में इस जंग को समाप्त करने वाले प्रस्ताव का समर्थन भी कर चुका है। इसी कारण से बैठक में यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की पहुँच रहे हैं। सऊदी इसमें रूस को अभी आमंत्रित नहीं कर रहा है। शायद वह इस शिखर बैठक के बाद रूस को मनाने का एक अवसर अपने पास रखना चाहेगा।बड़े देशों में भारत के अलावा बाज़ील और दक्षिण अफ्रीका भी जेद्दाह शांति सम्मेलन में भाग ले रहे हैं। कुछ समय पहले जेद्दाह में अरब लीग समिट हो चुकी है। इसमें जेलेंस्की को ख़ास तौर पर बुलाया गया था। जेलेंस्की ने अपने देश के लिए अरब देशों से खुले समर्थन और सैनिक सहयोग की अपेक्षा की थी।
आपको याद होगा कि पिछले महीने दक्षिण अफ्रीका की पहल पर सारे अफ्रीकी देशों ने इस जंग को ख़त्म करने के लिए शांति प्रस्ताव तैयार किया था। प्रस्ताव तैयार करने वाले देशों में मिस्त्र ,सेनेगल,ज़ाम्बिया ,युगांडा और कांगो जैसे राष्ट्रों के प्रमुख शामिल थे। लेकिन इसमें रूस के जीते हुए क्षेत्रों को वापस लौटाने की बात शामिल नहीं थी। यूक्रेन के राष्ट्रपति ने इसलिए इस प्रस्ताव को खारिज़ कर दिया था। जेलेंस्की ने कहा था कि युद्ध तभी समाप्त हो सकता है ,जब रूस यूक्रेन से छीनी गई सारी ज़मीन लौटा दे। उनका कहना था कि शांति प्रस्ताव बेतुका है और बिना उसे भरोसे में लिए हुए तैयार किया गया है। इस तरह यह शांति प्रस्ताव बिना चर्चा के ही समाप्त हो गया ।
अफ्रीकी देशों के शांति प्रस्ताव से पहले चीन ने भी एक फॉर्मूला पेश किया था। यह फॉर्मूला युद्ध का एक साल पूरा होने पर रखा गया था। चीन के इस प्रस्ताव में बारह मुख्य बिंदु थे। रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन को यह पसंद आया था। मगर यूक्रेन को यह नहीं जमा था क्योंकि इसमें भी रूस के द्वारा जीते गए इलाक़े यूक्रेन को वापस करने का कोई ज़िक्र नहीं था।चीन के राष्ट्रपति शी जिन पिंग ने पश्चिमी देशों और यूरोप के मुल्क इसे स्वीकार करते तो पुतिन से बात आगे बढ़ाई जा सकती थी । पर, उस प्रस्ताव को न तो अमेरिका ने पसंद किया और न ही यूरोपियन देशों को रास आया। चीन के बारह बिंदुओं में ख़ास थे - दोनों राष्ट्र एक दूसरे की संप्रभुता का सम्मान करेंगे, न्यूक्लिअर संयंत्रों की रक्षा की जाएगी ,जंग से तबाह क्षेत्रों का साझा पुनर्निर्माण ,उद्योग और उत्पादन की टूटी कड़ियों को जोड़ा जाएगा ,शीत युद्ध की मानसिकता छोड़ी जाएगी,नागरिकों और युद्ध बंदियों की हिफाज़त की जाएगी और अनाज निर्यात को आसान बनाया जाएगा। ग़ौरतलब है कि इसमें यूक्रेन के नाटो की सदस्यता लेने वाला बिंदु नदारद था ,जिसकी वजह से रूस ने पहला आक्रमण किया था। इसका अर्थ यह भी निकलता है कि रूस अब यह ज़िद छोड़ने पर राज़ी हो गया है। उसने इस बारह सूत्री योजना को पसंद भी किया था। गतिरोध ख़त्म करने की दिशा में यह बड़ा क़दम माना जा सकता है। इस पर नाटो देशों को सकारात्मक रवैया अपनाना चाहिए था। उन्होंने ऐसा नहीं किया।
रूस और यूक्रेन के बीच इस सदी की अब तक की सबसे लंबी जंग रोकने के लिए तुर्की ने भी अपनी ओर से एक पहल की थी ,पर उसमें सिर्फ़ अनाज व्यापार को बिना बाधा के करने पर सहमति बन पाई थी। इसके आगे बात नहीं बढ़ी थी । शुरुआती दिनों में भारत ने भी एक प्रयास किया था। मगर उस प्रयास की अधिक जानकारी विश्व को नहीं मिल सकी। भारत ने रूस की वित्तीय स्थिरता बनाए रखने के लिए उसके संकट काल में भरपूर तेल खरीदा है और उसे अलग अलग रूपों में बदलकर निर्यात भी किया है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में रूस की निंदा वाले किसी प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया है। पर अमेरिकी रिश्तों के मद्देनज़र वह रूस के निकट भरोसे वाली उस सूची में नहीं है ,जिसमें चीन शामिल है। चीन और रूस के बीच का भी अतीत बेहद कड़वा है ,मगर वह भारत की तुलना में चीन पर ही दाँव लगाना चाहेगा। फिर भी जेद्दाह की शिखर वार्ता में भारत के रहने से रूस और यूक्रेन दोनों ही असहज नहीं हैं। तमाम मतभेदों के बावजूद चीन और भारत अपने अपने कारणों से रूस का साथ देना चाहेंगे।