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Added on : 2024-05-13 09:18:11

अंकित मिश्रा 

इन दिनों लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव प्रचार में संविधान भी एक गंभीर मुद्दा बन गया है ।भारतीय जनता पार्टी पर कांग्रेस का आरोप है कि चार सौ पार का नारा देने के पीछे संविधान बदलने का इरादा है । बीजेपी दबी ज़बान से खंडन कर रही है । सोचने वाली बात यह है कि मौजूदा संविधान क्या वाकई इतना अप्रासंगिक हो गया है ? या इसको बदलने के पीछे कुछ और छिपी हुई मंशाएं हैं ।
भारतीय संविधान के शिल्पी डॉक्टर बाबा साहब आंबेडकर ने साफ कहा था कि संविधान चाहे जितना श्रेष्ठ बना लिया जाए ,यदि उसे अमल में लाने वाले ठीक नही हैं,तो अच्छे से अच्छा संविधान भी बेकार है । 
दरअसल भारत का संविधान  व्यक्ति व समूह के मूल्यों के आधार पर संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न,समाजवादी, पंथ निरपेक्ष , लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने पर बल देता है। इसकी शक्ति का स्रोत भारत के लोग हैं। जिसमें सभी को विकास के सर्वांगीण अवसर देना, राज्य का कर्तव्य है। किसी धर्म विशेष को बढ़ावा न देकर राज्य सभी धर्म के प्रति सम्यक है। परिस्थिति विशेष के कानून बनाकर समता व समाजवाद पर बल देना राज्य की संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा है। प्रतिष्ठा व अवसर की समता, संघात्मक शासन व्यवस्था, न्यायपालिका की स्वतंत्रता जैसे आधारभूत ढांचा ने लोकतंत्र के तीनों स्तंभों को निरंकुश होने तथा स्वतंत्रता से काम करने की आजादी दी है। विधायिका व कार्यपालिका द्वारा अधिकार क्षेत्र से बाहर कानून का अतिक्रमण करने पर न्यायिक पुनरावलोकन जैसी शक्ति भी संविधान में निहित है। और यह पूरी व्यवस्था लोक के कल्याण हेतु प्रतिबद्ध है। जो लोकतांत्रिक कार्य प्रणाली के आधार पर विधि के अधीन रहकर सभी को समानता प्रदान करती है। इस समता के लिए वर्ग विशेष के लिए आरक्षण, संवैधानिक संस्थाएं, विशेष राज्य का दर्जा, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा जैसे मूल्य भी संविधान ने कार्यपालिका को प्रदान किए हैं। हम इन मूल्यों के आधार पर ही अपने अधिकार की बार-बार बात करते हैं। हम कहते हैं कि हमें समान नागरिक के आधार पर, समान शिक्षा, सामान स्वास्थ्य, सामान रोजगार, समान आजीविका और सामान मनोरंजन के साथ-साथ अपनी क्षमता अनुसार आर्थिक विकास के अवसर मिलना चाहिए। और यही हमारे संविधान के लक्ष्य भी है। इन उद्देश्यों या लक्ष्यों  की प्राप्ति सुनिश्चित करने हेतु नागरिकों को यह अधिकार मिला है कि वह प्रत्येक 5 साल में अपनी सरकार का चयन करें। यह सरकार इन उद्देश्यों की आपूर्ति हेतु संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और विधि के शासन के प्रति आस्था प्रकट करते हुए लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत अपने कार्यक्रम आगे बढ़ती है। यदि इन उद्देश्यों की आपूर्ति में कोई बाधा आती है तो हमारा संविधान उसमें कुछ परिवर्तन करने की गुंजाइश के अधिकार भी विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को देता है। आजादी के तुरंत बाद संवैधानिक व्यवस्था स्थापित हुई और हमें 1951 में ही संवैधानिक आदर्शो को प्राप्त करने  कुछ परिवर्तन महसूस होने लगे। और एक स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत हमने भूमि सुधार से संबंधित पहला संशोधन 1951 में किया। उसके बाद भी कई संशोधन हुए और इन संशोधनों को चुनौती भी दी गई। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य विवाद 1973 में 13 जजों की खंडपीठ ने 24 अप्रैल 1973 को ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कहा कि संविधान में ऐसा कोई भी संशोधन नहीं किया जा सकता जिससे संविधान का बुनियादी ढांचा प्रभावित हो। इस प्रकार संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत होने वाले संवैधानिक संशोधनों को न्यायपालिका की मान्यता मिली और आज तक लगभग 106 संविधान संशोधन करके हमने अपनी संवैधानिक व्यवस्था को मजबूत बनाया है। यह सारे संशोधन लोक को केंद्र में रखकर किए गए ताकि लोक मजबूत बने। लेकिन तंत्र ने पूंजीवादी सुधार करके अपने आप को भी मजबूती दी है या कहना चाहिए कि इस पूंजीवाद ने तंत्र को ही जकड़ लिया है जिससे तंत्र की गर्दन फंसी हुई है वह उतना ही बोलता जितना आर्थिक तंत्र चाहे। लोकतंत्र में तंत्र की इस ज्यादा मजबूती ने लोकतंत्र पर ही खतरा पैदा कर दिया है। उसने लोक के आचरण व व्यवहार पर पर्दा डालकर उसकी नैतिकता व विवेक को संकुचित किया है। जिससे लोक स्वतंत्रता को भी एक विशेष पार्टी रूपी तंत्र के एजेंडा को पूरा करने में न्यौछावर करने तैयार है। इसको हम क्या कहेंगे लोकतंत्र की सफलता और निरंकुश तंत्र की चेष्टा।
 यह चेष्टा धर्म के आधार पर है लोक कल्याण के आधार पर है या वर्ग के आधार पर है। हमें यह पंथनिरपेक्षता इतनी क्यों चुभ रही है? क्या इसके चक्कर में हम अपने भाई दलित, आदिवासी, पिछडो का विकास भी फूटी आंख नहीं देखना चाहते हैं। क्या हम अपने आसपास उन देशों को भी नहीं देख पा रहे हैं, जो धर्म के नाम पर बने। नाम का लोकतंत्र स्थापित किया और आज दिवालिया हो रहे हैं। इस दिवालियापन में मीडिया का भी अहम रोल है, जिसने हमारे दिमाग में धर्म और जाति की अफीम घोली है। विवेक शून्यता को पैदा किया है। तर्क वितर्क को खत्म किया है। ऐसे लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है, जिससे शहरी उन्माद भी बढ़ा है। दूसरी तरफ संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने वाले लोगों में निराशा आई है। यह निराशा विश्वास से ज्यादा संख्या बल की है, हार से ज्यादा सार्थकता की है, डर से ज्यादा संगठित धर्म व सशस्त्र शक्ति से है। और जब यह लोकतंत्र एक पार्टी की दिशा में बढ़ेगा तो यह निराशा हताशा में बदल जाएगी। धर्म विशेष के आधार पर बनी सत्ताधारी पार्टी का यह प्रमुख और अंतिम लक्ष्य है, जो सारे लक्ष्यों की पूर्ति की दिशा खोलता है। जिसमें संविधान तो होगा लेकिन समानता नहीं, लोकतंत्र तो होगा लेकिन लोक नहीं, बंधुता तो होगी लेकिन दलित अल्पसंख्यक नहीं, न्याय तो होगा लेकिन समता नहीं, संस्कृति तो होगी लेकिन विविधता नहीं, शिक्षा तो होगी लेकिन तार्किकता नहीं, अध्यात्म तो होगा लेकिन चिंतन नहीं। फिर क्या होगा? पूंजीवादी शक्ति व धार्मिक शक्ति का गठजोड़, जो पूंजी और कट्टरता के माध्यम से खिलवाड़ करके नागरिक को वस्तु में बदल देंगे। लोकतांत्रिक देश में पूंजीवाद के कारण आज व्यक्ति की स्वतंत्रता जनप्रतिनिधित्व तथा उम्मीदवार खुलेआम नीलाम हो रहे हैं। आज की लोक शाही अमीर की बेटी है इसलिए लोक शाही में पूंजीवाद के गुण आ गए हैं। लक्ष्मी जी जब बाजार में बैठ जाती हैं तब वह विष्णु की पत्नी नहीं रह जाती है। बाजार में बैठी हुई लक्ष्मी गणिका बन जाती है। महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में पार्लियामेंट के लिए इस शब्द का प्रयोग किया है उन्होंने पार्लियामेंट को प्रॉस्टिट्यूट गानिका कहा है। एक स्त्री मित्र ने जब गाँधी जी को लिखा कि आपकी भाषा पूरी पुस्तक में बहुत सभ्यता की है, इस एक शब्द के सिवा। क्या इस एक शब्द को आप हटा नहीं सकते हैं? अपनी पुस्तक में से। वह अभद्र शब्द है अन पार्लियामेंट्री शब्द है। गांधी जी ने कहा कि तुम्हारा आग्रह है, तुम्हें खटकता है, तो मैं हटा सकता हूं, लेकिन यह गाली नहीं है, यह वर्णन है। मैं सिर्फ वर्णन कर रहा हूं कि पार्लियामेंट किस प्रकार से नीलाम होती है। वह संस्था बाजार में बैठी हुई है और 'हाईएस्ट बिडर', जो सबसे ज्यादा बोली बोलना है। उसके बस में वह चली जाती है। जितने घोषणा पत्र होते हैं, करीब - करीब नीलमी की बोलियों जैसे होते हैं। और इनमें से जो 'हाईएस्ट बिडर' होगा, जो यह कहेगा कि मैं इस जमीन को आसमान बना दूंगा, इस पृथ्वी को स्वर्ग बना दूंगा, इस चमन को बहिश्त बना दूंगा। उसको ज्यादा से ज्यादा वोट मिलते हैं। या फिर जिसमें वोट जुटाने की सिफ़त है, तरकीब है। उसको अधिक से अधिक वोट मिलते हैं। वोट जुटाना में जो सिद्धहस्त होता है, माहिर होता है, उसका वर्णन मैंने किया था। वह गरीब से यह कहता है कि मैं अमीर से तुझे बचा लूंगा, मुझे वोट दे, अमीर से कहता है कि मैं गरीब से तुझे बचा लूंगा मुझे पैसा दे दे। एक से पैसा ले लेता है दूसरे से वोट ले लेता है। यह सिफत जिसमें है वह चुनाव में जीत जाता है। तो चुनाव में जीत जाना सेल्समैन जैसी एक कला हो गई है। वोट जुटाना भी चंदा उगाने जैसी एक कला हो गई है। उसमें मतदाता का शिक्षण नहीं होता है। आप मतदाता को जागृत करना नहीं चाहते हैं बल्कि आपकी कोशिश यह रहती है कि वह गाफिल रहे तो ज्यादा अच्छा है।  जितना वह पीनक में रहेगा, उतना वोट जुटा लेना आसान होगा। तो मनुष्यों को घेरना, उनको ललचाना, डराना, धमकाना, चकमा देना आदि कई तरह की इनकी तरकीब है, कलाएं हैं। तो चुनाव में जीतना भी एक कला है उसका प्रतिनिधित्व से अधिक संबंध नहीं है ऐसी स्थिति में लोकतंत्र की जो चुनौती है उस चुनौती का विचार करना है। जयप्रकाश नारायण ने भी लोकतंत्र में दल और चुनाव को तब तक अनुपयुक्त माना है जब तक जनता में शिक्षा के माध्यम से विवेक का विकास नहीं होता है। वह कहते हैं कि दल चुनाव के माध्यम से झूठी घोषणाएं कर अल्प मत पर बहुमत का शासन चलाते हैं और लोक कल्याणकारी राज्य के नाम पर पैसा डकार जाते हैं।

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